Monday, September 10, 2007

दिस इज़ इंग्लैंड (2006)

This Is England (UK)

सन 83 में आधारित यह ब्रितानी फ़िल्म उस दौर के इंग्लैंड के बेरोजगार युवाओं (स्किनहेड्स) के उद्देश्यहीन और अक्सर हिंसक आवारापन, फ़ॉकलैंड्स युद्ध के सामाजिक दुष्परिणामों, थैचर के प्रति असंतोष, और कुछ "राष्ट्रवादियों" द्बारा परिस्थितियों को रंगभेदी रंग देने के तरीकों का एक कोलाज है. कथित तौर पर फ़िल्म लेखक-निर्देशक शेन मीडोज़ के अपने अनुभवों की कहानी है.

फ़िल्म अपने रंगरूप (और कई बार कथावस्तु) में 2002 की आयरिश क्लासिक ब्लडी संडे की याद दिलाती है. यूँ तो पूरी कास्ट का काम ही बेहतरीन है, पर उस दौर में बड़े हो रहे एक ऐसे 12 साल के बच्चे जिसके पिता युद्ध में मारे जा चुके हैं के पात्र में टॉमस टरगूज़ का अभिनय बेजोड़ है.

भाषा/विषयवस्तु चेतावनी - फ़िल्म में गालियाँ भरी पड़ी हैं. एफ़-वर्ड का इस्तेमाल हर आधे मिनट में है.

दिमागी ख़लल कैसे-कैसे

रीन ओवर मी (2007) Reign Over Me *** - डॉन चीडल, एडम सैंडलर. ड्रामा. सितंबर 11 की हवाई दुर्घटना में अपने परिवार को खो चुके सैंडलर को अरसे बाद अपने कॉलेज का पुराना दोस्त चीडल मिलता है और उसे सामान्य करने की कोशिश करता है. हालाँकि तालियों वाले सीन सैंडलर को मिले हैं और उन्होंने ठीक-ठाक निभाए भी हैं, फ़िल्म की हाइलाइट चीडल का अभिनय है. संयोग है कि कल "11 सितंबर" की बरसी भी है.

कैशबैक (2006) Cashback *** - कॉमेडी, ड्रामा, रोमांस. अनिद्रा का शिकार नायक अपनी कलात्मक परिकल्पनाओं को खुला छोड़ देता है. बढ़िया फ़िल्मांकन और पार्श्वसंगीत वाली यह ब्रिटिश फ़िल्म कई बार अपने फ़्रीज फ़्रेमों के साथ अचंभित कर देती है. सेक्सयुक्त दृश्यों, नग्नता, और भाषा के लिए R-rated.

द लुकआउट (2007) The Lookout *** - जोसफ़ गोर्डन-लेविट, ज़ेफ़ डेनियल्स. अपराध, रोमांच, ड्रामा. एक कार दुर्घटना में दिमागी चोट के बाद युवा नायक एक बैंक में जेनिटर की नौकरी कर रहा है. उसपर एक बैंक लुटेरे गैंग की नज़र पड़ती है और...

मिस्टर ब्रूक्स (2007) Mr. Brooks ***/ - केविन कॉसनर, डेमी मूर, विलियम हर्ट. अपराध, रोमांच, ड्रामा. एक ऐसे आदमी की कहानी जो कभी-कभी अपने पर अपनी ऑल्टर ईगो को हावी होने देता है, जिसे हत्या करना पसंद है. कॉसनर बढ़िया हैं और हर्ट भी. दोनों के बीच का इंटरएक्शन भी मज़ेदार है. रक्तरंजित हिंसा, सेक्सयुक्त दृश्यों, नग्नता, और भाषा के लिए R-rated.

Monday, July 30, 2007

इंगमार बर्गमैन नहीं रहे

"मेरी फ़िल्मों के लोग बिल्कुल मेरे जैसे ही होते हैं, सहजबुद्धि वाले, अपेक्षाकृत कम बौद्धिक क्षमता वाले लोग, जो अगर सोचते भी हैं तो तभी जब वे बात कर रहे होते हैं."- इंगमार बर्गमैन

मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों पर गहरी, अक्सर दर्दनाक, पर अद्भुत फ़िल्में बनाने वाले स्वीडिश फ़िल्मकार इंगमार बर्गमैन नहीं रहे. वे 89 के थे.

बड़ी अजीब सी बात है कि इसी शनिवार (यानि परसों ही) मैं उनकी अंतिम फ़िल्मों में से एक 1978 में बनी ऑटम सोनाटा (Autumn Sonata) देख रहा था. शायद उसी वक्त जब वो अपने अंतिम सफ़र की तैयारी में थे. सोच कर सिहरन होती है.

Wednesday, July 11, 2007

आर्मी ऑफ़ शेडोज़ (1969)

L'armee des ombres (France; in French and a little German)
(Army of Shadows)

आर्मी ऑफ़ शेडोज़ से एक दृश्यसिनेमाई उत्कृष्टता की मिसाल.

द्वितीय विश्व युद्ध के समय नाज़ी जर्मनी द्वारा फ़्रांस के कब्ज़े का एक बड़े वर्ग ने प्रतिरोध किया था. अंडरग्राउंड और काफ़ी हद तक असंगठित इस विरोध को फ़्रेंच रज़िस्टेंस (फ़्रांसीसी प्रतिरोध) के तौर पर जाना जाता है. फ़िल्म के लेखक (जोसफ़ केसेल) और निर्देशक (ज्याँ-पियरे मेलविल) दोनों खुद उस प्रतिरोध का हिस्सा थे. प्रतिरोध के अपने अनुभवों और कुछ असली किरदारों से उन्होंने यह फ़िल्म बुनी है. पर फ़िल्म देशभक्ति और उससे जुड़ी नारेबाज़ी के बारे में नहीं है. बल्कि जानबूझकर इससे बचती है. चालीस के दशक के पेरिस की गलियों के मेहनत और सूक्ष्मता से तैयार किए गए खुशबूदार और कुछ न्वारी (noirish) से नज़ारों की पृष्ठभूमि में कहानी किरदारों, उनकी क्षमताओं, भावनाओं, दुविधाओं, और निर्णयों की है. उससे भी ज़्यादा उनके अपने ज़िंदा रहने की.

अजीब सी बात है कि 1969 में फ़्रांस में प्रदर्शित इस फ़िल्म को अमेरिका के थियेटरों तक पहुँचने में 37 साल लग गये. किन्हीं वजहों से (निश्चय ही राजनैतिक नहीं, शायद व्यावसायिक) फ़िल्म पिछले साल तक अमेरिका में प्रदर्शित नहीं हुई थी. डीवीडी पर दो महीने पहले ही आई है. अमेरिकी दर्शक और समीक्षक इस देरी पर हैरान हैं. उनकी तालियों का शोर थमा नहीं है.

[आधिकारिक साइट]

Wednesday, July 04, 2007

ता'म ए गिलास (1997)

Taste of Cherry (Iran, Persian)
Ta'm e guilass

एक अधेड़ आदमी ख़ुदकुशी करना चाहता है और उसके लिए एक मददगार ढूँढ रहा है. प्लॉट पूरी तरह गले नहीं उतरता और दिलचस्पी घटाता है. दृश्य थोड़े खिंचे हुए हैं. संवाद कुछ जगह अपनी सहजता की वजह से अच्छे लगते हैं पर कई जगह ख़ुदकुशी के ख़िलाफ़ पुराने, घिसे-पिटे तर्कों को गूढ़ विचारों की तरह पेश किया गया है.

ईरानी रेगिस्तान और रेतिस्तान के नारंगी-पीले रंग से भरे फ़्रेम सुंदर लगते हैं. अभिनय, खास कर सहकलाकारों का, इतना अच्छा है कि डॉक्यूमेंट्री का सा एहसास देता है.

नोट्स -
1) पूरी फ़िल्म में तीन सह-कलाकार नायक से कार में बैठे बात करते दिखते हैं. वास्तव में उनमें से दो शूट के दौरान नायक (हुमायूँ इरशादी) से मिले ही नहीं. पर उसके बावजूद धाराप्रवाह कण्टिन्युटी अब्बास क्यारोस्तामी की निर्देशकीय और तकनीकी क्षमता दिखाती है.

2) [चेतावनी: आगे रहस्योद्घाटन है] फ़िल्म का अंत भ्रमित करता है. मंज़र अचानक रंगीन हो जाता है, फ़िल्म क्वालिटी विडियो जैसी हो जाती है और क्यारोस्तामी कैमरे और क्रू के साथ नज़र आते हैं. जैसे कह रहे हों कि ये जो आपने देखा वो बस एक फ़िल्म की शूटिंग थी. या ये कि दिख रहे सच के ऊपर एक और सच है?

Tuesday, July 03, 2007

ऑफ़साइड (2006) - ईरान

Offside (Iran, Persian)

कमाल का प्रयोग. फ़िल्म ईरान और बहरीन के बीच खेले गए पिछले फ़ुटबॉल विश्व-कप योग्यता मैच के साथ-साथ चलती है. कहानी और पात्रों का व्यवहार मैच की घटनाओं से प्रभावित होता रहता है. और फ़िल्म वहीं मैच के बीच शूट की गई है. डॉक्यूमेंटरी-नुमा फ़िल्मांकन के बीच कई कलाकारों का अभिनय बेजोड़ है. सोचिये अगर तो अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है कि फ़िल्म और इसकी कहानी कैसे सोची गई होगी. योजना और इम्प्रोवाइज़ेशन के बीच कितने कमाल का इंटरऐक्शन रहा होगा. इतने इम्प्रोवाइज़ेशन के बाद इतनी दिलचस्प फ़िल्म बना पाना ही जफ़र पनाही की सफलता है.

फ़िल्म जहाँ ऊपरी तौर पर एक कॉमेडी है, इसकी परतों में ईरान के कई सामयिक और सांस्कृतिक मुद्दे उभरते हैं. बड़ी ख़ूबी से ये बात उठती है कि औरतों की आज़ादी जैसे मुद्दों को एक आम ईरानी मज़हब के जरिये ही देखे ये ज़रूरी नहीं. बल्कि अक्सर वह उसे सामाजिक संदर्भों से उपजे कॉमन सेंस के जरिये देखता है.

ब्रीच (2007)

Breach

अमेरिका के सबसे बड़े सुरक्षा भंजन पर बनी यह फ़िल्म दिखाती है कि सच सचमुच कल्पना से ज़्यादा अजीब होता है. 2001 में रूस के लिए जासूसी करते पकड़े गए अमेरिकी एफ़बीआई एजेंट रॉबर्ट हैनसन और एफ़बीआई द्वारा ही उसके पीछे लगाए एक एफ़बीआई प्रशिक्षु एरिक ओ नील की कहानी. चुस्त पटकथा, बढ़िया निर्देशन (बिली रे), और वाशिंगटन के कुछ बढ़िया नज़ारे.

द वेजेज़ ऑफ़ फ़ियर (1953) - फ़्रांस

Salaire de la peur, Le (France, French)
English name: The Wages of Fear

ये फ़िल्म मेरी प्रेक्षण-सूची में प्रमोद सिंह की बदौलत जुड़ी. लातिन अमेरिका के एक गाँव की आलस भरी दोपहरी से शुरू होकर ये फ़िल्म जिस तरह एक तनाव भरे रोमांच में बदलती है, देखने लायक है. अमेरिकन कंपनियों की तेल राजनीति फ़िल्म के केंद्र में है. शुक्रिया प्रमोद.

द आयरन जायंट (1999)

The Iron Giant (Animation)

इन्क्रेडिबल्स और रैटाटूई वाले ब्रैड बर्ड की इस ऐनिमेशन फ़िल्म के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. पर फ़िल्म बच्चों को एक मज़ेदार कहानी तो सुनाती ही है, तकनीकी नज़रिये से भी बढ़िया है. पात्रों को आवाज़ देने वालों में जेनिफ़र ऐनिस्टन और वैन डीज़ल शामिल हैं.

Thursday, June 28, 2007

सिको (2007)

SiCKO

माइकल मूर का ताज़ा शिकार है अमरीकी स्वास्थ्य प्रणाली. इंश्योरेंस व फ़ार्मा कंपनियों ने मिलकर अमेरिका में स्वास्थ्य सेवाओं को कइयों के लिए दुर्लभ बना दिया है. बेरोज़गारों का तो इस देश में भगवान ही मालिक है. जबकि बाक़ी पश्चिमी दुनिया का हर देश (पड़ोसी कनाडा से लेकर अटलांटिक पार के यार इंगलैंड तक) सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराता है, अमेरिका में ऐसा नहीं है. यहाँ ये निजी हाथों में है और सिर्फ़ उन्हीं को उपलब्ध है जो इंश्योरेंस कंपनियों के आसमान छूते प्रीमियम भर सकते हैं. मूर इसके पीछे के "क्यों" की पड़ताल कर रहे हैं. अपने ख़ास तंज भरे अंदाज़ में. उनकी पिछली फ़िल्म फ़ैरनहाइट 911 में प्रोपैगैंडा की बू थी और इसलिए मुझे बहुत पसंद नहीं आई थी. पर इस फ़िल्म से वे वापस बोलिंग फ़ॉर कोलंबाइन की श्रेष्ठता की तरफ़ बढ़ते दिखते हैं. दिलचस्प और झकझोरती डॉक्यूमेंट्री.

Tagline: For many Americans, laughter isn't the best medicine - it's the only medicine.

वीनस (2006)

Venus

बेहतरीन अभिनय और चुटीले संवादों से सजी फ़िल्म. पीटर ओ टूल अविश्वसनीय हैं. जोडी व्हिटेकर भी प्रभाव डालती हैं. फ़िल्म माइ सन द फ़ैनेटिक वाले हनीफ़ क़ुरैशी ने लिखी है. जगह है इंग्लैंड. विषय है एक बुजुर्ग का एक युवा लड़की के प्रति आकर्षण. न न, भूलकर भी निःशब्द के बारे में मत सोचिये. दोनों की दुनियाएँ (भौतिक और कलात्मक दोनों) ही अलग हैं. परतदार.

Sunday, June 17, 2007

हॉट फज़ (2007)

Hot Fuzz

दो शब्द - ब्लडी ब्रिलियंट.

ब्लैक कॉमेडी कोई ब्रितानियों से सीखे. शॉन ऑफ़ द डेड वाले लेखक-निर्देशक एडगर राइट की पेशकश. साइमन पेग, जो फ़िल्म के सह-लेखक भी हैं, सारजेंट एंजल की भूमिका में जबरदस्त हैं. इस साल अब तक देखी फ़िल्मों में बेहतरीन.

नेक्स्ट (2007)

Next

बेवजह सरखपाऊ बकवास. ये निकलस केज को क्या हो गया है.

शूटर (2007)

Shooter

वाशिंगटन पोस्ट के पुलित्ज़र विजेता फ़िल्मालोचक स्टीवन हंटर के उपन्यास पर आधारित. पूर्वसैनिक, कुशल निशानेबाज़ बॉब ली स्वैगर उनके उपन्यासों का नायक है. अभी तक इस नायक के साथ वे तीन उपन्यास लिख चुके हैं और यह फ़िल्म पहले उपन्यास पर आधारित है. यानि यह एक नयी रैम्बो-नुमा शृंखला की शुरुआत हो सकती है. फ़िल्म चुस्त और तेज़ है. मार्क वॉलबर्ग बॉब ली स्वैगर की भूमिका में जँचते हैं. पर कुल मिलाकर कहानी और पटकथा आम हॉलीवुडी महानायकीय फ़िल्मों के फ़ॉर्मूले से बँधे हैं. मज़ेदार पर साधारण.

गोस्ट राइडर (2007)

Ghost Rider

मार्वल कॉमिक्स के एक चरित्र पर आधारित. उबाऊ. निकलस केज, इवा मेंडस (आधा मज़ा तो इन्होंने किरकिरा कर दिया.)

Sunday, June 10, 2007

लेटर्स फ़्रॉम इवो जिमा (2006)

Letters From Iwo Jima (Japanese/English)

देखने लायक. अमरीका-जापान युद्ध में जापान की तरफ़ की एक कहानी. क्लिंट ईस्टवुड को मैं पसंद करता हूँ, पर मुझे लगता है इस फ़िल्म में वे पूरी तरह ईमानदार नहीं रहे. कहने को कहानी जापान के नजरिये से है पर अमेरिकी चश्मे के रंग दिखाई देते हैं.

म्यूज़िक एण्ड लिरिक्स (2007)

Music And Lyrics

हल्की-फुल्की ब्रिटिश स्टाइल की कॉमेडी. कहानी के नाम पर कुछ नहीं. फिर भी ह्यू ग्रांट और ड्रू बैरीमोर साथ हैं - इतवार की दोपहर को और क्या चाहिए. कुछ संवाद अच्छे हैं, कुछ बिल्कुल हल्के.

Drew B: A melody is like seeing someone for the first time. The physical attraction. Sex.
Hugh G: I so get that.
Drew B: But then, as you get to know the person, that's the lyrics. Their story. Who they are underneath. It's the combination of the two that makes it magic.

शूटआउट एट लोखंडवाला (2007)

फ़िल्म की शुरुआत में ही चेतावनी मिल गई थी - "सच्ची अफ़वाहों पर आधारित". न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम. गानों को फास्ट-फारवर्ड करने के बावजूद फ़िल्म धीरज का इम्तिहान लेती है. बचिए.

एक चालीस की लास्ट लोकल (2007)

पता नहीं कैसी है. 20 मिनट से आगे नहीं देख झेल पाया...

88 मिनट्स (2007)

88 Minutes

एल पचीनो. "88 मिनट में उसे एक ख़ून की गुत्थी सुलझानी है." अच्छा प्लॉट पर कमजोर रुपांतरण. फ़िल्म तेज़ चलती है पर अंत में संतुष्ट नहीं छोड़ती.

Monday, June 04, 2007

लाइफ़ इन ए मेट्रो (2007)

माना कि 60 के अमेरिका जैसा क्यूबिकल-संसार अब भारत में भी पसर रहा है. पर इसका मतलब यह तो नहीं कि फ़िल्मों के प्लॉट भी वहीं से उधारी लिए जाएँ. और उधारी भी कहाँ, चोरी, बल्कि चोरी भी क्या, डकैती! ऑरिजिनल चिंतन नाम की चीज़ मुम्बई में बची है कि नहीं?

फ़िल्म की प्रस्तावना ('प्रेमिस') ही दुरुस्त नहीं, बाक़ी का क्या कहिये. वही भेजा फ़्राय वाला हिसाब. 1960 की अमेरिकी फ़िल्म द अपार्टमेंट, जो कि एक निहायत मज़ेदार और ईमानदार फ़िल्म थी, का प्लॉट यूँ का यूँ मुम्बई में चिपका दिया है अनुराग बसु ने. भाई मेरे, महज भाषा बदलने से कल्चर अनुवादित नहीं होता.

ऊपर से निर्देशकीय नौसिखियेपन के उदाहरण बिखरे पड़े हैं फ़िल्म में. मिसाल देखिये (चेतावनी - आगे रहस्योदघाटन है). कोंकणा को उसका बॉस जब पहली बार ऑफ़िस (या जिम?) में बुलाता है तो फ़्रेम में उसके पीछे ब्रोकबैक माउण्टेन का पोस्टर लगा दिखता है. अब लीजिए. जो रहस्य फ़िल्म में 15 मिनट बाद इन्हें सनसनीखेज़ तरीके से खोलना है, उसकी वे यहीं बत्ती लगा देते हैं. (चेतावनी समाप्त) अनुराग बाबू, समझदार निर्देशक ऐसे चोंचले नहीं करता, फ़िल्म की क़ीमत पर तो कतई नहीं.

और एक ये प्रीतम एण्ड कंपनी. हर 20 मिनट में किसी चौराहे पर अपने बैंड के साथ गिटार लेकर आ जाते हैं. नहीं, 2-3 बार ठीक लगता है (ख़ासकर 'इन दिनों' सुनने में भला लगता है) पर फिर झुंझलाहट होने लगती है. अच्छे निर्देशक की एक ख़ूबी ये होती है कि उसे पता होता है कि कहाँ रुकना है.

पर एक बात अच्छी लगी अनुराग की. हालाँकि कुछ देर तक वो यथार्थ का नाटक ज़रूर करते हैं, क्लाइमैक्स तक आते-आते जब उनकी पोल-पट्टी खुलने लगती है, बड़ी ईमानदारी से मान जाते हैं कि भई मैं तो मज़ाक़ कर रहा था. कहाँ का सच, कौन सा यथार्थ. छोड़ो यार .. मुझे इरफ़ान को घोड़े पर शहर में भगाने दो.

नहीं नहीं ग़लत मत समझें. फ़िल्म बुरी नहीं है. अच्छा टाइम-पास है. इरफ़ान और कोंकणा फ़िल्म को देखने लायक बनाते हैं. इनकी अदाकारी में इम्प्रोवाइज़ेशन का अच्छा खासा पुट दिखता है. कोंकणा निश्चय ही अपने वक़्त की बेहतरीन अभिनेत्रियों में से हैं. तो अगर आम मसाला फ़िल्मों से कोई ख़ास आपत्ति न हो तो फ़िल्म आराम से देखिये. बुरी नहीं है. पर ऐसा अनुराग बसु की वजह से नहीं है, उनके बावजूद है.

मेरी कई बातों को कहीं बेहतर तरीके से समझाया है सिलेमा वाले साब जी ने. उनसे बस इतना ही कहना है कि फ़िल्म इस लायक नहीं कि इस पर कोई गंभीर बहस हो. इसलिए चाय खत्म कीजिए, आगे चलते हैं.

पर्फ़्यूम - द स्टोरी ऑफ़ अ मर्डरर (2006)

Perfume - The Story of A Murderer (2006)

कहानी 18 वीं सदी के फ़्रांस की है; एक ऐसे अतिमानवीय व्यक्ति की जो कीचड़ में जन्मा है (शब्दशः) पर जिसकी घ्राणशक्ति विलक्षण है. वह दुनिया भर की ख़ुशबुओं को पहचान सकता है और उन्हें अलग-अलग याद रख सकता है. उसके दिमाग में ख़ुशबुएँ ज़्यादा हैं उन्हें देने के लिए नाम कम. और उसकी अपनी कोई गंध नहीं है.

वह चाहता है ऐसा गुर जानना जिससे ज़िंदा चीज़ों की ख़ुशबू को सहेज कर रखा जा सके. और यह चाहत उसे स्याह रास्तों की तरफ़ मोड़ देती है.

एक अच्छी कहानी बढ़िया तरीके से सुनाई हुई. तकनीकी रूप से भी फ़िल्म उम्दा है. 18 वीं सदी का पैरिस अपनी समूची सुगंधों के साथ मौजूद है. पार्श्वसंगीत दृष्यों को गहराई देता है. फ़िल्म एक बेहद लोकप्रिय उपन्यास पर आधारित है. निर्देशक हैं रन लोला रन वाले टॉम टाइक्वर.

फ़िल्म के कमज़ोर पक्षों में आश्चर्यजनक रूप से डस्टिन हॉफ़मैन हैं. और क्लाइमैक्स भी मुझे कुछ हल्का लगा, पर बहुत थोड़ा सा.

IMDB कड़ी

Monday, May 14, 2007

द नेमसेक | The Namesake (2007)

अमेरिकी आप्रवासियों और उनकी समस्याओं को फ़िल्म कई सतहों पर छूती है. पर सतह से आगे नहीं बढ़ पाती. फ़िल्म के कथानक (सूनी तारापोरवाला) में और गहरे जाने का अवकाश था. इसके बावजूद फ़िल्म रोचक है और गुदगुदाते संवादों से ध्यान खींचे रखती है. किताब (झुम्पा लाहिड़ी लिखित) के मूल कथ्य के साथ भी न्याय करती है.

मीरा नायर (निर्देशक) अंग्रेज़ी दर्शकों के भारत संबंधी पूर्वाग्रहों को भुनाती ही दिखती हैं. चाहे वे कलकत्ता की सड़कों के सीन हों या ताजमहल के दृश्य, कैमरा (फ़्रेड्रिक एम्स) इन्हें टूरिस्टी नज़रिये से निहारता लगता है. पर कुछ दृश्य संवेदनशीलता और प्रभावी तरीके से फ़िल्माए गए हैं.

तकनीकी और तथ्यात्मक ग़लतियाँ कई हैं. जैसे न्यू यॉर्क से कलकत्ता की उड़ान के लिए एयर इंडिया की जगह इंडियन एयरलाइंस (जोकि भारत की घरेलू एयर सेवा है) का जहाज दिखाना. 1977 के कलकत्ता में द टेलीग्राफ़ का बोर्ड (बड़ी प्रमुखता से) दिखता है, जो 1982 में शुरू हुआ था. ग़लतियाँ इतनी स्पष्ट हैं कि फ़िल्म देखते वक़्त ही खटकती हैं.

अभिनेताओं में तब्बू कमाल है. इरफ़ान ख़ान ने भी, जैसी उनसे अपेक्षा थी, अच्छा काम किया है. उम्मीद से उलट, कैल पेन कई जगह अतिशयता के शिकार हुए हैं. एक जगह तो (जहाँ रेल्वे स्टेशन पर वे अपनी पत्नी पर गुस्सा होते हैं) वे ऐंग्री-यंग-अमिताभ के हैंगओवर में लगते हैं.

छुट-पुट:
1) नाम-क्रम के प्रदर्शन में बाँग्ला व रोमन अक्षरों का मेल मोहक है.
2) झुम्पा लाहिड़ी ख़ुद भी कुछ देर के लिए झुम्पा मासी के तौर पर दिखती हैं.
3) फ़िल्म की भाषा पारस्थितिक है. मुख्यतया अंग्रेज़ी, पर कई अवसरों पर बाँग्ला. एकाध डायलॉग हिंदी में भी हैं.
4) फ़िल्म के एक सीन में ये मेरा दीवानापन है (यहूदी) का एक हास्यास्पद रीमिक्स संस्करण बजता है. सीन दिलचस्प है.

IMDB कड़ी

Friday, May 11, 2007

भेजा फ्राय (2007)

फ़िल्म इस बात की मिसाल है कि एक अच्छा अभिनेता और एक अच्छी परफ़ॉर्मेंस किसी औसत, बल्कि घटिया, फ़िल्म को भी मनोरंजक बना सकते हैं. विनय पाठक अभी तक की श्रेष्ठतम कॉमिक अदायगियों में से एक के साथ अकेले दम पर फ़िल्म को देखने लायक बनाते हैं. सिर्फ़ देखने लायक ही नहीं, ठहाकों से भरपूर.

लगभग बिना कहानी वाली यह फ़िल्म एक शाम की घटना पर आधारित है. फ़्रांसीसी फ़िल्म 'द डिनर गेम' (अंग्रेज़ी शीर्षक) से उड़ाया गया प्लॉट भारतीय संदर्भों में नहीं जँचता और पटकथा में अविश्वसनीयता का भाव लाता है.

बाक़ी ऐक्टरों में रजत कपूर हमेशा की तरह संतुलित हैं. रणवीर शूरी छोटे से रोल में हैं और थोऽऽड़ा ओवर-द-टॉप हुए हैं. मिलिंद सोमन इतने बुरे ऐक्टर हैं ये मुझे पता नहीं था. सारिका ठीक हैं, कम से कम आज के कमल हासन से बेहतर. काफ़ी दिनों बाद उन्हें पर्दे पर देखकर अच्छा लगा.

विनय पाठक के लिए देखने वाली फ़िल्म. पुराने हिंदी गानों के शौकीनों को और मज़ा आयेगा.