अमेरिकी आप्रवासियों और उनकी समस्याओं को फ़िल्म कई सतहों पर छूती है. पर सतह से आगे नहीं बढ़ पाती. फ़िल्म के कथानक (सूनी तारापोरवाला) में और गहरे जाने का अवकाश था. इसके बावजूद फ़िल्म रोचक है और गुदगुदाते संवादों से ध्यान खींचे रखती है. किताब (झुम्पा लाहिड़ी लिखित) के मूल कथ्य के साथ भी न्याय करती है.
मीरा नायर (निर्देशक) अंग्रेज़ी दर्शकों के भारत संबंधी पूर्वाग्रहों को भुनाती ही दिखती हैं. चाहे वे कलकत्ता की सड़कों के सीन हों या ताजमहल के दृश्य, कैमरा (फ़्रेड्रिक एम्स) इन्हें टूरिस्टी नज़रिये से निहारता लगता है. पर कुछ दृश्य संवेदनशीलता और प्रभावी तरीके से फ़िल्माए गए हैं.
तकनीकी और तथ्यात्मक ग़लतियाँ कई हैं. जैसे न्यू यॉर्क से कलकत्ता की उड़ान के लिए एयर इंडिया की जगह इंडियन एयरलाइंस (जोकि भारत की घरेलू एयर सेवा है) का जहाज दिखाना. 1977 के कलकत्ता में द टेलीग्राफ़ का बोर्ड (बड़ी प्रमुखता से) दिखता है, जो 1982 में शुरू हुआ था. ग़लतियाँ इतनी स्पष्ट हैं कि फ़िल्म देखते वक़्त ही खटकती हैं.
अभिनेताओं में तब्बू कमाल है. इरफ़ान ख़ान ने भी, जैसी उनसे अपेक्षा थी, अच्छा काम किया है. उम्मीद से उलट, कैल पेन कई जगह अतिशयता के शिकार हुए हैं. एक जगह तो (जहाँ रेल्वे स्टेशन पर वे अपनी पत्नी पर गुस्सा होते हैं) वे ऐंग्री-यंग-अमिताभ के हैंगओवर में लगते हैं.
छुट-पुट:
1) नाम-क्रम के प्रदर्शन में बाँग्ला व रोमन अक्षरों का मेल मोहक है.
2) झुम्पा लाहिड़ी ख़ुद भी कुछ देर के लिए झुम्पा मासी के तौर पर दिखती हैं.
3) फ़िल्म की भाषा पारस्थितिक है. मुख्यतया अंग्रेज़ी, पर कई अवसरों पर बाँग्ला. एकाध डायलॉग हिंदी में भी हैं.
4) फ़िल्म के एक सीन में ये मेरा दीवानापन है (यहूदी) का एक हास्यास्पद रीमिक्स संस्करण बजता है. सीन दिलचस्प है.
IMDB कड़ी
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1 comment:
सही है, भैया.. टाप किलास.
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