Tuesday, May 24, 2005

स्टार वार्स एपिसोड III - रिवेंज ऑफ़ द सिथ

'स्टार-वार्स' एक बहुत बड़े अमरीकी दर्शक-वर्ग के लिए बतौर एक कहानी कुछ-कुछ वैसा ही स्थान रखती है जैसा शायद भारतीयों के लिए रामायण या महाभारत (अरे भाई कहा तो सही, "कहानी के तौर पर")। इसलिए इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं कि इस श्रृंखला की अन्तिम फ़िल्म के प्रदर्शन पर पूरा अमरीका आजकल स्टार-वार्स-मय हो रहा है।

इस श्रृंखला की यह नवीनतम और शायद अन्तिम फ़िल्म एक खास कारण से विशेष है। और वह यह है कि इस फ़िल्म की prequel (पूर्ववर्ती) और sequel (पश्चगामी) दोनों फ़िल्में पहले ही बन चुकी हैं। और वह भी एक-एक नहीं बल्कि इससे पहले के २ भाग और इसके बाद के ३ भाग प्रदर्शित हो चुके हैं। यानी खास बात यह कि फ़िल्म का प्रारम्भ और अन्त तय है। ऐसी दशा में किसी भी फ़िल्म को रुचिकर बनाना खासा मुश्किल काम है। पर जॉर्ज लूकस ने न केवल यह मुश्किल काम कर दिखाया है बल्कि बड़े ही शानदार तरीके से।

पूरी श्रृंखला का एक छोटा-सा परिचय दूँ तो यह फ़िल्म यानी "Episode III - Revenge of The Sith" इसकी छठी फ़िल्म है। जी हाँ, एपिसोड ३, पर छठी। दरअसल पहली और मूल स्टार-वार्स को एपिसोड ४ के नाम से जाना जाता है, जो १९७७ में प्रदर्शित हुई थी। उसके बाद आईं ५ (१९८० में) और ६ (१९८३ में), जिन्हें लूकस ने निर्देशित नहीं किया (हालाँकि लेखन सभी फ़िल्मों में उन्हीं का था)। उसके बाद १६ वर्षों के अन्तराल के बाद १९९९ में प्रदर्शित हुई लूकस-निर्देशित एपिसोड १ और फिर २००२ में पिछली वाली यानी एपिसोड २। कहानी का क्रम भी बेशक नम्बरों के अनुसार ही है। इस नई फ़िल्म की कहानी वहाँ से शुरू होती है जहाँ पिछली प्रदर्शित फ़िल्म एपिसोड २ में खत्म हुई थी, और वहाँ खत्म होती है जहाँ से पहली फ़िल्म (जो २८ साल पहले आई थी) शुरू हुई थी। चक्कर आ रहे हैं? अच्छा छोड़िये। सब भूल जाइये और फ़िल्म देखिये। श्रृंखला की हर फ़िल्म अपने आप में पूरी है (चलो, लगभग पूरी है), किसी ग़ज़ल के शे'र जैसी। मैंने एपिसोड १ को छोड़ कर बाकी सारी फ़िल्में देखी हैं और मेरे विचार में उनमें से यह नवीनतम फ़िल्म, पहली फ़िल्म यानी एपिसोड ४ से अगर बेहतर नहीं तो कम भी नहीं। इसके अलावा एपिसोड ६, जो इस रामकहानी का अन्त दिखाती है, भी इस श्रृंखला की बेहतर फ़िल्मों में से है।

बेशक अगर आपने अगली-पिछली फ़िल्में देख रखी हैं तो आपका जायका थोड़ा अलग होगा, शायद बेहतर भी (क्योंकि आप फ़िल्म की कई सतहों को देख पाएँगे), पर पहली बार के दर्शक के लिए भी फ़िल्म बहुत मजेदार और रुचिकर है। इस फ़िल्म में पहली फ़िल्म के मुकाबले एक अन्तर जो साफ उभरकर सामने आता है वह है हल्के-फुल्के क्षणों की कमी। जहाँ पहली फ़िल्म में (और कुछ अन्य कड़ियों में भी) 3CPO और R2D2 के बीच के हल्के-फुल्के प्रसंग, हान सोलो (हैरिसन फ़ोर्ड अभिनीत) के चुटीले संवाद, राजकुमारी लिया और हान सोलो की नोंक-झोंक फ़िल्म का एक बड़ा हिस्सा थे और फ़िल्म का माहौल मनोरंजक और हल्का बनाये रखते थे, इस फ़िल्म में कोई भी चरित्र वह भूमिका अदा नहीं करता। और 3CPO, जिसका चरित्र ऐसा कर सकता है, उसे बहुत कम फ़ुटेज दी गई है। पर खास बात यह है कि इससे फ़िल्म की मनोरंजकता पर कोई खास बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। कहानी के मामले में पहली फ़िल्म का मुकाबला कोई भी और कड़ी नहीं कर पाती, पर प्रारम्भ और अन्त के निश्चित होने के बाद जो जगह बचती थी उसे देखते हुए यह नई फ़िल्म अच्छी कहानी कहती है। साथ ही पिछली फ़िल्मों के सभी छूटे/बिखरे सिरों को जोड़ने का जिम्मा भी बखूबी निभाती है। सिनेमा-निर्माण में उपलब्ध नई तकनीकों का बहुत अच्छा प्रयोग किया गया है और अचरज में डालने वाले (यह जानते हुए भी कि कम्प्यूटरों के प्रयोग ने अब बहुत कम असम्भव दृश्य छोड़े हैं) दृश्यों की कमी नहीं है। स्टार-वार्स की अन्य फ़िल्मों की तरह कौतूहल पैदा करने वाले चरित्रों की भी भरमार है। अभिनेताओं में कोई भी असाधारण नहीं है पर सबने ठीक-ठाक काम किया है। अगर कोई थोड़ा विशेष प्रभावित करता है तो वह है योडा को अभिनीत करने वाला कलाकार यानी फ़्रैंक ऑज़।

कुल मिलाकर लूकस आराम की साँस ले सकते हैं। विश्व फ़िल्म इतिहास में उनका नाम सुरक्षित है। उन्होंने अमरीका की कई पीढ़ियों को उनके बचपन के कुछ सबसे यादगार चलते-फिरते पात्र दिए हैं। कई माँ-बापों को यह राहत दी है कि वे बच्चों की कोई फ़िल्म उनके साथ बैठकर बिना ऊबे देख सकें। उन्होंने एक विज्ञान-गल्प, जो २८ सालों के एक लम्बे दायरे और छह मनोरंजक फ़िल्मों में फैला हुआ है, को जीवन और उससे भी बढ़कर एक रोचक और उम्दा अन्जाम दिया है। और कौन कर सका है ये!

Wednesday, May 11, 2005

स्वदेस - दूसरे दौर की समीक्षा

कल दुबारा 'स्वदेस' देखी। इससे पहले एक लम्बे अर्से में मुझे ऐसी कोई फ़िल्म याद नहीं आती, जो छह महीने के अन्तराल में दो बार साढ़े तीन घंटे तक मुझे बिठा के रख सकी हो। और यह तब है जबकि शाहरुख खान का नाम सुनते ही मुझे छींकें शुरू हो जाती हैं।

फ़िल्म की सबसे खास बात मुझे इसका असलीपन लगा। पात्रों, घटनाओं, मुद्दों से लेकर गलियों, घरों, भाषा और लहजे तक सब बहुत वास्तविक और सच्चे लगते हैं। और फिर भी कहानी का जो अपना 'larger-than-life' वाला व्यक्तित्व होता है वह भी बरकरार रहता है। कुल मिला कर, यह बहुत ही सलीके से सुनाई गई कहानी है जिसमें उम्दा विषय-वस्तु, श्रेष्ठ निर्माण मूल्यों, और सिनेमाई गुणवत्ता के चलते महान होने के पूरे गुण मौजूद हैं। मुझे इस फ़िल्म को आज तक की सभी हिन्दी फ़िल्मों में से कुछ चुनिंदा "न छोड़ने योग्य" फ़िल्मों की सूची में रखने में कोई हिचक नहीं होगी।

आशुतोष गोवारिकर अपनी पीढ़ी के महान निर्देशकों में नाम लिखाने की ओर अग्रसर हैं। 'लगान' शायद ज़्यादा मनोरंजक फ़िल्म थी, पर 'स्वदेस' अधिक विचारोत्तेजक और गहन है। गम्भीर, सामयिक और मुद्दों पर आधारित सिनेमा है। अपने समय की 'दो बीघा ज़मीन' है। पर इनकी ये दोनों फ़िल्में सिनेमाई उत्कृष्टता और अच्छी कही कहानी का श्रेष्ठ उदाहरण हैं। उनकी निर्देशकीय प्रतिभा अब तुक्के की बात नहीं रही। उन्होंने इसे सिद्ध कर दिया है। स्वदेस से ही एक विशेष उदाहरण लें। फ़िल्म में जब मोहन भार्गव (शाहरुख) हरिदास के गाँव से बिना किराया वसूले वापस लौटता है तो पहले नाव पर और फिर ट्रेन में उन दृश्यों में बिना कुछ कहे वे बहुत कुछ कह गए हैं। दृश्य के अन्त में जब मोहन पानी खरीद कर पीता है, वह मेरी हाल की याददाश्त में सबसे प्रभावी दृश्यों में से है। कहते हैं समझदार को इशारा काफ़ी होता है। अधिकतर हिंदी फ़िल्मकार या तो हमें समझदार नहीं समझते या उन्हें इशारा करना नहीं आता। शुक्र है कि इस फ़िल्मे में इस 'इशारे' की वापसी के संकेत दिखते हैं।

गायत्री जोशी बेहद प्रभावित करती हैं। जहाँ उन्हें नए चेहरे का फ़ायदा मिला है वहीं अभिनय में परिपक्वता भी दिखती है। पर उनका रोना-धोना थोड़ा कमज़ोर है। शाहरुख बिना किसी हिचक के इस फ़िल्म को अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करार दे सकते हैं। वैसे सर्वश्रेष्ठ की बजाय एकमात्र श्रेष्ठ कहना भी कुछ गलत नहीं होगा। अभिनय के अलावा एक और चीज जो इस फ़िल्म को सफल बनाती है वह है इसकी पटकथा और उससे भी ज़्यादा इसके संवाद। पात्र बड़े स्वाभाविक लगते हैं। सब वही भाषा बोल रहे हैं जो करोड़ों लोग रोज शहरों, कस्बों और गाँवों में आम बोलचाल में बोलते हैं। संवाद की शक्ति इस फ़िल्म में उभर कर आती है। मेरा मानना है कि किसी कहानी या फ़िल्म के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है किरदारों को विश्वसनीय बनाना। और संवाद, उनकी बोली और लहजा वो जादू की छड़ी है जो अगर ठीक से चलाई जाए तो हाथों-हाथ देखने वाले को पात्रों से जोड़ देती है। के पी सक्सेना ने लगान में भी यह कर दिखाया था और यहाँ भी वे पूरे सफल रहे हैं।

फ़िल्म के गाने मुझे फ़िल्म में बेहतर लगे। शुक्र है कि आशुतोष उन दिग्दर्शकों में से हैं जिन्हें गाने की ताकत का अन्दाज़ा है और उससे भी महत्वपूर्ण यह कि वे गाने के माध्यम से अपनी कहानी को आगे बढ़ाना जानते हैं। पिछले काफ़ी अर्से से रहमान की धुनें मुझे कुछ खास रुचिकर नहीं लगीं, पर पार्श्वसंगीत के मामले में मैं उन्हें अभी भी सबसे बेहतर उपलब्ध संगीतकारों में शुमार करता हूँ। इस फ़िल्म का पार्श्वसंगीत भी अपनी पारदर्शिता और भराव की वजह से अच्छा असर छोड़ता है।

पर यह भी सच नहीं कि स्वदेस एक सम्पूर्ण फ़िल्म है। कुल मिलाकर करीब ८-१० मिनट की फ़िल्म ऐसी है जो बाकी फ़िल्म के स्तर से मेल नहीं खाती। मसलन, नासा में फ़िल्माए अधिकतर दृश्य सपाट हैं। निर्देशक अमरीकी अभिनेताओं को अच्छी तरह 'हैंडल' नहीं कर पाए हैं। इसी तरह वृद्धाश्रम का दृश्य बड़ा ही कमज़ोर है, शायद नौसिखिया कलाकारों की वजह से। हालाँकि बाकी फ़िल्म में आशुतोष ने सहायक कलाकारों से कमाल का काम लिया है। एक और दृश्य जो मेरे खयाल में थोड़ा 'कच्चा' रह गया, वह है दशहरे वाले दिन मोहन भार्गव का गाँव के लोगों से "भारत की महानता" के बारे में मतभेद। मुझे लगता है कि यह फ़िल्म के सबसे महत्वपूर्ण दृश्यों में से था और इसे और अधिक प्रभावी बनाया जा सकता था। पर ऐसे सीन गिने-चुने हैं। तीन घंटे से अधिक के आनन्द में ये कुछ पल खास बाधा नहीं डालते।

मैं जानता हूँ कि लम्बाई की वजह से फ़िल्म की आलोचना हुई है। यहाँ तक कि उनके द्वारा भी जिन्हें फ़िल्म वैसे पसंद आई है। मुझे नहीं लगता कि यह आलोचना जायज़ है। फ़िल्म लंबी ज़रूर चलती है, पर थकती नहीं। उद्देश्य यह नहीं होता कि फ़िल्म लंबी न हो, बल्कि यह होता है कि उबाऊ न हो। स्वदेस बिल्कुल अन्त तक ताजा और रुचिकर रहती है। एकाध क्षण ऐसे आते हैं जब थोड़ी बेचैनी होती है या घड़ी की तरफ़ ध्यान जाता है (जैसे अन्त के आसपास नासा वाला सीन थोड़ा-सा लम्बा खिंच गया है), पर बड़ी जल्दी ही फ़िल्म पटरी पर वापस आ जाती है।

मेरे विचार में गम्भीर फ़िल्मों का निर्माण-मूल्यों से लैस होना हिन्दी फ़िल्मों के लिए एक दुर्लभ संयोग है। और जब ऐसा हो तो यह ख़ुशी का कारण है, और उम्मीद का भी। स्वदेस मेरे खयाल से ऐसी ही घटना है।

अन्त में आशुतोष से एक अनुरोध : भाई मेरे, जो कर रहे हो, जैसे कर रहे हो, वैसे ही करते रहो। कारण कि बिल्कुल सही-सही कर रहे हो। एक बात और। ये 'स्वदेश' नाम में क्या बुराई थी लाला? तत्सम-तद्भव ऐसे 'मिक्स' करने की क्या ज़रूरत आ पड़ी। अगर इतनी ही ठेठ होने की पड़ी थी तो 'अपना देस' कह लेते। 'स्व' संस्कृत का उपसर्ग है, इसे हर हिंदी शब्द के साथ नहीं जोड़ा जाता। यह किसी तत्सम के साथ ही जाता है। कभी 'स्व-गाँव' सुना है? क्या है कि आँख-कान को थोड़ा खटकता है। बाकी तुम्हारी फ़िल्म है, जो मर्जी नाम रखो। नाम का यही तो फ़ायदा है कि उसका कोई अर्थ निकलना ज़रूरी नहीं, न ही सही होना। इसी 'टेक्नीकॅलिटि' के चलते बच गए इस बार। पर इसका और फ़ायदा मत उठाना, भाई।

Sunday, April 24, 2005

अ से अमिताभ उर्फ़ फ़िल्मफ़ेस्ट डीसी २००५

Amitabh at FilmFest DC 2005

रविवार, अप्रैल १७, २००५. ऐवलॉन थियेटर, वाशिंगटन डीसी

यह १९ वाँ डीसी फ़िल्म फ़ेस्टिवल है। हिन्दी फ़िल्में यहाँ पहले एकाध बार दिखाई तो गई हैं, पर इस बार की तरह नहीं। इस बार तो फ़ेस्टिवल की थीम ही 'बीजिंग से बॉलीवुड तक' है। हालाँकि फ़िल्मों के चयन से मुझे थोड़ी असंतुष्टि है पर कुछ हो रहा है यही काफ़ी है। यह जिम्मा प्रतिष्ठित स्मिथसोनियन इंस्टीच्यूट की मंजुला कुमार के हाथों में था। दरअसल भारतीय पैनोरमा का सारा काम-काज उन्होंने ही सँभाल रखा है। फ़िल्मों के चयन से लेकर विशेष मेहमानों की आवभगत और थियेटर में फ़िल्म व मेहमान के परिचय तक। समारोह की भारतीय फ़िल्में ये हैं: मुग़ल-ए-आज़म, रेनकोट, चोखेर बाली (बांग्ला), दिल से, देव, ब्लैक, हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी, बवंडर, संचारम (मलयालम), मॉर्निंग रागा, और सॉंग्स ऑफ़ महुलबनी (बांग्ला)। विशेष मेहमानों में शामिल हैं अमिताभ, अभिषेक, रितुपर्णो घोष, सुधीर मिश्रा, जगमोहन मूँधड़ा, नंदिता दास, आदि।

सारी फ़िल्में देखना तो संभव नहीं था, इसलिये हमने तय किया कि समय-रुचि-सामर्थ्य के अनुसार चुनाव किया जाए। और कम से कम 'देव' या 'ब्लैक' तो देखी ही जाए। अमिताभ इन फ़िल्मों के शो के दौरान उपस्थित रहने वाले थे और उनको देखने का मौका चूकने का कोई विशेष कारण नहीं बनता था। ऊपर से अभिषेक भी आने वाले थे। हमने 'देव' चुनी क्योंकि 'ब्लैक' हमने अभी पिछले दिनों ही देखी थी। इतवार को दोपहर का शो था। उसी दिन शाम को 'ब्लैक' भी दिखाई जानी थी। और दोनों ही फ़िल्मों में बच्चन पिता-पुत्र मौजूद रहने वाले थे।

१९२३ में बना ऐतिहासिक ऐवलॉन थियेटर डीसी का सबसे पुराना लगातार चालू रहने वाला सिनेमाघर था, जब २००१ में इसे बंद कर दिया गया। आस-पास के लोगों की अथक कोशिशों के बाद २००३ में यह फिर शुरू हुआ। कनेटिकट ऐवेन्यू पर चेवी चेज़ सर्किल के पास स्थित यह सिनेमाघर काफ़ी कुछ किसी छोटे भारतीय शहर के आम सिनेमाघर जैसा लगता है। 'देव' और 'ब्लैक' समेत फ़ेस्टिवल की कई महत्वपूर्ण फ़िल्में यहीं दिखाई जा रही हैं।

इतवार की दोपहरें अलसायी-सी होती हैं। पर बसन्त की ठंढी धूप इस दोपहर को ताज़ा रखने की पूरी कोशिश कर रही थी। कुछ घंटे-भर पहले पहुँच गए थे हम। टिकटें हमने पहले ही आरक्षित करवा दी थीं। कुछ खास भीड़-भाड़ तो नहीं थी, पर टिकट खिड़की बंद थी और चंद लोग टिकटों के "जुगाड़" में लगे थे। एक से पूछा तो बोले कि इस उम्मीद में हैं कि ब्लैक में मिल जाएँगी। बाद में पता चला कि वे महाशय बिना टिकट ही अंदर घुस लिए थे, यह कहकर कि एयर इंडिया से आए हैं।

खैर, हम अंदर पहुँचे। हॉल काफ़ी भर चुका था। मिनटों बाद ही पीछे की सीटों से कुछ शोर सुनाई दिया और सारी गर्दनें पीछे मुड़ने लगीं। अमिताभ और अभिषेक दरवाज़े के पास खड़े थे और उन्हें पिछली सीटों पर बिठाया जा रहा था। और जैसा कि अमिताभ की फ़िल्मों में उनकी "एंट्री" के वक़्त होता है, हॉल तालियों से गूँज रहा था। लगभग ये सारे दर्शक जीवन में पहली बार अमिताभ की कोई फ़िल्म पूरी की पूरी अमिताभ के साथ बैठकर देखने वाले थे। और तालियों से बखूबी यह पता चल रहा था। फिर फ़िल्मफ़ेस्ट के निदेशक टोनी गिटन्स और मंजुला जी मंच पर आए। निदेशक महोदय ने फ़ेस्टिवल का और मंजुला जी ने फ़िल्म और अमिताभ का परिचय दिया। थोड़ी-सी नर्वस लगीं। पर उनका क्या दोष। फिर अमिताभ मंच पर आये, कुछ फ़िल्म के बारे में बोले। कहा कि फ़िल्म पुलिस और राजनीति के बीच के गठजोड़ को दिखाती है और बहुत 'बोल्ड' है; बहुत ईमानदारी और हिम्मत से बनाई गई है; बाकी आप फ़िल्म में देखें। उसके बाद फ़िल्म शुरू हुई। अब तक हॉल खचाखच भर चुका था और चंद लोग गैलरी में खड़े-बैठे फ़िल्म देख रहे थे। अमिताभ, अभिषेक और अमर सिंह (जी हाँ, वही) पिछली पंक्ति में कोने की सीटों पर बैठे थे - कोने पर अभिषेक, फिर अमर सिंह, फिर अमिताभ। एक अमरीकी स्वयंसेविका उनकी दर्शकों से "रक्षा" के लिए अभिषेक के पहले खड़ी थीं। फ़िल्म हम पहले ही देख चुके थे और हमारी राय फ़िल्म के बारे में कुछ खास अच्छी नहीं थी। पर ऐसा भी नहीं था कि दोबारा झेल न सकें। सो बैठे रहे। मैं कुछ सोते, कुछ जागते देखता रहा। उम्मीद यह थी कि फ़िल्म के बाद शायद कोई मौका मिले, औटोग्राफ़ या फोटोग्राफ़ लेने का। जैसे-तैसे फ़िल्म ख़त्म हुई। बीच में तो कहीं तालियाँ नहीं बजीं पर फ़िल्म के खत्म होने पर जम कर बजीं। हालाँकि मुझे नहीं लगता कि लोगों को फ़िल्म कुछ खास पसंद आई होगी, पर जब अभिनेता वहीं मौजूद हो तो ताली बजाने में कसर करना अच्छी मेहमाननवाज़ी नहीं होती। कुछ इसी विचार से हमने भी लोगों का पूरा साथ दिया।

इस बीच मंजुला जी मंच की तरफ़ बढ़ने लगीं और भारतीय प्रशंसक (जो अब अच्छी खासी तादाद में दिख रहे थे) अमिताभ की तरफ़। यह सोचकर कि कहीं देर न हो जाए, मैं भी लपका। इतने में मंजुला जी ने घोषणा की कि अब अमिताभ श्रोताओं के सवालों का जवाब देंगे। लोग फिर बैठ गए। पर मैं चलता गया। सेकेंडो में मैं अमिताभ के पास था। बिल्कुल पास। कैमरा लिए। और कोई पास नहीं है। सिर्फ़ अमिताभ और उनको लेकर मंच की तरफ़ बढते हुए निदेशक महोदय। मैं हाथ मिलाता हूँ। फिर औटोग्राफ़ माँग रहा हूँ। निदेशक कहते हैं कि वे मंच पर जाकर वापस आएँगे। अमिताभ भी दोहराते हैं "I am coming back"। मैं कुछ तस्वीरें खींचता हूँ। और अमिताभ मंच की ओर बढ़ते रहते हैं। अब सोचने पर सब कुछ "सर्रियल"-सा लगता है। अवसर की अहमियत को दिमाग ने तब तक शायद प्रॉसेस नहीं किया था। अमिताभ मंच पर पहुँचते हैं और फिर सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हो जाता है। कुछ अच्छे और कई आम सवाल पूछे जाते हैं जिनका अमिताभ बड़े ही सलीके से और कभी-कभी मजाकिया उत्तर देते हैं। कई अमरीकी अगर फ़िल्म देखकर नहीं, तो इस संवाद से ज़रूर उनके प्रशंसक बन गए होंगे। प्रश्न पूछने वालों में अमरीकी ही ज़्यादा हैं। एक सवाल हमारे "डीसी बॉलीवुड मीटप ग्रुप" की सदस्या जेना भी पूछती हैं, हिन्दी फ़िल्मों में नाच-गानों की आवश्यकता के बारे में। पर अमिताभ एक घिसा-पिटा-सा उत्तर देते हैं। मैं मध्य गैलरी में मंच के पास जाकर कुछ और तस्वीरें लेता हूँ। मेरे पास अमिताभ से कुछ खास पूछने को नहीं है। कम से कम उस वक्त तो कुछ याद नहीं आता। हिन्दी फ़िल्मों में हिन्दी शीर्षकों (क्रेडिट्स) की अनुपस्थिति से मैं व्यथित हूँ पर विदेशी मंच पर यह प्रश्न मुझे असंगत लगता है और मैं विचार टाल देता हूँ। दूसरे यह भी कि मैं इस प्रश्न को जितने महत्व और गम्भीरता के साथ रखना चाहता हूँ, मुझे लगता है यहाँ शायद वह न मिले। इस बीच मैं कोशिश करता हूँ कि अभिषेक (जो अभी भी पिछली पंक्ति में अपनी सीट पर बैठे हैं) का औटोग्राफ़ ले लूँ। लेकिन कोने पर खड़ी वह स्वयंसेविका जो कि अब कुछ परेशान-सी लग रही है यह कह कर मना करती है कि इसकी इजाज़त नहीं है। मैं वहीं पास खड़ा उसके इधर-उधर होने का इंतज़ार करता हूँ, पर वह मौका कभी आता नहीं। मैं कुछ तस्वीरें तो खींच ही लेता हूँ। सवाल-जवाब के बाद मंजुला जी अभिषेक को मंच पर बुलाती हैं। जब वे मंच की ओर बढ़ते हैं, मुझे औटोग्राफ़ लेने का मौका मिलता है। मैं यशवंत व्यास की लिखी "अमिताभ का अ" उनके सामने बढ़ाता हूँ। वे मुस्कुराते हैं। पेन माँगते हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या आपने पढ़ी है। वे मुस्कुरा कर हाँ कहते हैं और उसपर अपने दस्तख़त करते हैं। इस बीच उनके चारों ओर भीड़ बढ़ने लगती है। अब मैं उनको छोड़ अपने मुख्य "निशाने" की तरफ़ बढ़ता हूँ, जो पहले ही घिरा हुआ है। अभिषेक को मंच पर बुलाने का प्लान निदेशक महोदय को अब एक भूल लगता है और वे यह कहते सुनाई देते हैं, "I have never seen anything like this in my life." उन्हें शुक्र करना चाहिए कि यह फ़ेस्टिवल भारत में नहीं हो रहा है। पत्नी का कहना है कि यहाँ के प्रशंसक बड़े ही सभ्य तरीके से व्यवहार कर रहे हैं। मैं उससे सहमति व्यक्त करता हूँ। और फिर लोगों से घिरे अमिताभ तक पहुँचता हूँ और उन्हें वही किताब थमाता हूँ। एक पल को वे किताब के शीर्षक को देखते हैं और एक पल को मुझे। मेरे दिमाग में "भाई तुम साइन करोगे या नहीं" कौंधता है। शुक्र है मुँह से नहीं निकलता। अमिताभ मुस्कुराते हैं और साइन कर देते हैं। उनका एक और प्रशंसक धन्य हो जाता है। किसी विजेता की तरह पीछे मुड़ता हूँ तो पत्नी बड़ी उत्सुकता से पूछती है, "मिल गया?" चेहरे पर ढाई इंच की मुस्कुराहट लिए हाँ कहता हूँ। अब अपना सामान उठाकर हम हॉल से निकलने के लिए पीछे की तरफ़ चलते हैं। वहाँ पिछली सीट पर अमर सिंह और उनकी पत्नी भीड़ से दूर अकेले शांतिपूर्वक बैठे अमिताभ के अमरीकी प्रशंसकों को देख रहे हैं। मैं उन्हें वही किताब दिखाता हूँ और पूछता हूँ कि क्या उन्होंने पढ़ी है। वे उलट-पुलट कर देखते हैं और कहते हैँ कि ये तो नहीं देखी कभी। मैं सलाह देता हूँ कि पढ़ें, अच्छी किताब है। वे किताब पर शुभकामनाएँ लिखते हैं। मैं दो-एक सवाल पूछ्ता हूँ अमिताभ के आगे के कार्यक्रम के बारे में। वे बताते हैं कि अमिताभ कल ही भारत रवाना हो रहे हैं। धन्यवाद कहकर मैं विदा लेता हूँ। मेरे पीछे खड़ीं एक अमरीकी युवती मुझसे पूछती हैं कि ये कौन हैं। मैं उन्हें बताता हूँ कि ये अमर सिंह... इससे पहले कि मैं अपना वाक्य पूरा करूँ वे चहक उठती हैं "Oh! so *he* is Amar Singh."। मैं ढाई इंच की मुस्कान को दो इंच का करके बाहर निकलता हूँ। एक अविस्मरणीय शाम पूरी होने को है। मेरा दिमाग अब प्रोसेसिंग शुरू कर चुका है। अब मैं इस आनंद रस को बूँद-बूँद पी रहा हूँ।

Sunday, January 02, 2005

DVDs rented (and of course watched) in 2004

Control Room (2004)
I, Robot (2004)
Starsky & Hutch (2004)
National Lampoon's Animal House: Double Secret Probation Edition (1978)
Fast Times at Ridgemont High: Special Edition (1982)
Collateral (2004)
Saved! (2004)
The Battle of Algiers (1965)
The Bourne Supremacy (2004)
Man on Fire (2004)
Harry Potter and the Prisoner of Azkaban (2004)
Raising Helen (2004)
Spider-Man 2 (2004)
Samay (2003)
My Life as a Dog (1985)
The Last Temptation of Christ (1988)
Dawn of the Dead (2004)
The Terminal (2004)
Shrek 2 (2004)
In the Mood for Love (2001)
ABCD (2001)
Y Tu Mama Tambien (2001)
Yossi & Jagger (2002)
House of Sand and Fog (2003)
Dersu Uzala (1975)
Bonnie and Clyde (1967)
Dirty Pretty Things (2002)
My Life So Far (1999)
The Barbarian Invasions (2003)
A Midsummer Night's Sex Comedy (1982)
Joggers' Park (2003)
Ikiru (1952)
Jhankaar Beats (2003)
Pinjar (2003)
Run (2004)
Dances With Wolves: Special Edition (1990)
Secret Window (2004)
50 First Dates (2004)
From Here to Eternity (1953)
Nowhere in Africa (2001)
Amores Perros (2000)
My Beautiful Laundrette (1986)
The Station Agent (2003)
The Fog of War (2003)
Monster (2003)
Big Fish (2003)
Kolya (1996)
Burnt by the Sun (1994)
The Matrix: Revolutions (2003)
Little Women (1994)
City of God (2002)
Character (1997)
Mystic River (2003)
Master and Commander: The Far Side of the World (2003)
21 Grams (2003)
Winged Migration (2001)
Hidden Fortress (1958)
Anger Management (2003)
Lord of the Rings: The Return of the King (2003)
Pather Panchali (1955)
Better Than Sex (2000)
In America (2002)
Girl with a Pearl Earring (2003)
The Last Samurai (2003)
Notting Hill (1999)
Tampopo (1986)
Basic (2003)
The Purple Rose of Cairo (1985)
Something's Gotta Give (2003)
The Discreet Charm of the Bourgeoisie (1972)
The School of Rock (2003)
Love Actually (2003)
Hannah and Her Sisters (1986)
The Rundown (2003)
Stoked: The Rise and Fall of Gator (2002)
Kill Bill: Vol. 1 (2003)
Croupier (1998)
Run Lola Run (1998)
The Magdalene Sisters (2002)
Shattered Glass (2003)
Daughter from Danang: American Experience (2002)
Confessions of a Dangerous Mind (2002)
What's Up, Doc? (1972)
In This World (2003)
Matchstick Men (2003)
What's Up, Doc? (1972)
The Princess Bride (1987)
Aparajito (1957)
XXX: Special Edition (2002)
Whale Rider (2003)
High and Low (1963)
The Legend of Bhagat Singh (2002)
The Philadelphia Story (1940)
Out of Time (2003)
Eat Drink Man Woman (1994)
MASH (1970)
Schindler's List (1993)
The Quiet American (2002)
Identity (2003)
Ran: Masterworks Edition (1985)
Kandukonden Kandukonden (2000)
Spellbound (2002)
Terminator 3: Rise of the Machines (2003)
The Italian Job (2003)
Vanaprastham (1999)
The Lion King 1 1/2 (2004)
Swimming Pool (2003)
Capturing the Friedmans (2003)
Intolerable Cruelty (2003)
S.W.A.T. (2003)
Bruce Almighty (2003)
Hungama (2003)
Finding Nemo (Widescreen) (2003)
American Splendor (2003)
Pirates of the Caribbean: The Curse of the Black Pearl (2003)
The League of Extraordinary Gentlemen (2003)
Under the Tuscan Sun (2003)
Lost in Translation (2003)