Monday, July 30, 2007

इंगमार बर्गमैन नहीं रहे

"मेरी फ़िल्मों के लोग बिल्कुल मेरे जैसे ही होते हैं, सहजबुद्धि वाले, अपेक्षाकृत कम बौद्धिक क्षमता वाले लोग, जो अगर सोचते भी हैं तो तभी जब वे बात कर रहे होते हैं."- इंगमार बर्गमैन

मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों पर गहरी, अक्सर दर्दनाक, पर अद्भुत फ़िल्में बनाने वाले स्वीडिश फ़िल्मकार इंगमार बर्गमैन नहीं रहे. वे 89 के थे.

बड़ी अजीब सी बात है कि इसी शनिवार (यानि परसों ही) मैं उनकी अंतिम फ़िल्मों में से एक 1978 में बनी ऑटम सोनाटा (Autumn Sonata) देख रहा था. शायद उसी वक्त जब वो अपने अंतिम सफ़र की तैयारी में थे. सोच कर सिहरन होती है.

Wednesday, July 11, 2007

आर्मी ऑफ़ शेडोज़ (1969)

L'armee des ombres (France; in French and a little German)
(Army of Shadows)

आर्मी ऑफ़ शेडोज़ से एक दृश्यसिनेमाई उत्कृष्टता की मिसाल.

द्वितीय विश्व युद्ध के समय नाज़ी जर्मनी द्वारा फ़्रांस के कब्ज़े का एक बड़े वर्ग ने प्रतिरोध किया था. अंडरग्राउंड और काफ़ी हद तक असंगठित इस विरोध को फ़्रेंच रज़िस्टेंस (फ़्रांसीसी प्रतिरोध) के तौर पर जाना जाता है. फ़िल्म के लेखक (जोसफ़ केसेल) और निर्देशक (ज्याँ-पियरे मेलविल) दोनों खुद उस प्रतिरोध का हिस्सा थे. प्रतिरोध के अपने अनुभवों और कुछ असली किरदारों से उन्होंने यह फ़िल्म बुनी है. पर फ़िल्म देशभक्ति और उससे जुड़ी नारेबाज़ी के बारे में नहीं है. बल्कि जानबूझकर इससे बचती है. चालीस के दशक के पेरिस की गलियों के मेहनत और सूक्ष्मता से तैयार किए गए खुशबूदार और कुछ न्वारी (noirish) से नज़ारों की पृष्ठभूमि में कहानी किरदारों, उनकी क्षमताओं, भावनाओं, दुविधाओं, और निर्णयों की है. उससे भी ज़्यादा उनके अपने ज़िंदा रहने की.

अजीब सी बात है कि 1969 में फ़्रांस में प्रदर्शित इस फ़िल्म को अमेरिका के थियेटरों तक पहुँचने में 37 साल लग गये. किन्हीं वजहों से (निश्चय ही राजनैतिक नहीं, शायद व्यावसायिक) फ़िल्म पिछले साल तक अमेरिका में प्रदर्शित नहीं हुई थी. डीवीडी पर दो महीने पहले ही आई है. अमेरिकी दर्शक और समीक्षक इस देरी पर हैरान हैं. उनकी तालियों का शोर थमा नहीं है.

[आधिकारिक साइट]

Wednesday, July 04, 2007

ता'म ए गिलास (1997)

Taste of Cherry (Iran, Persian)
Ta'm e guilass

एक अधेड़ आदमी ख़ुदकुशी करना चाहता है और उसके लिए एक मददगार ढूँढ रहा है. प्लॉट पूरी तरह गले नहीं उतरता और दिलचस्पी घटाता है. दृश्य थोड़े खिंचे हुए हैं. संवाद कुछ जगह अपनी सहजता की वजह से अच्छे लगते हैं पर कई जगह ख़ुदकुशी के ख़िलाफ़ पुराने, घिसे-पिटे तर्कों को गूढ़ विचारों की तरह पेश किया गया है.

ईरानी रेगिस्तान और रेतिस्तान के नारंगी-पीले रंग से भरे फ़्रेम सुंदर लगते हैं. अभिनय, खास कर सहकलाकारों का, इतना अच्छा है कि डॉक्यूमेंट्री का सा एहसास देता है.

नोट्स -
1) पूरी फ़िल्म में तीन सह-कलाकार नायक से कार में बैठे बात करते दिखते हैं. वास्तव में उनमें से दो शूट के दौरान नायक (हुमायूँ इरशादी) से मिले ही नहीं. पर उसके बावजूद धाराप्रवाह कण्टिन्युटी अब्बास क्यारोस्तामी की निर्देशकीय और तकनीकी क्षमता दिखाती है.

2) [चेतावनी: आगे रहस्योद्घाटन है] फ़िल्म का अंत भ्रमित करता है. मंज़र अचानक रंगीन हो जाता है, फ़िल्म क्वालिटी विडियो जैसी हो जाती है और क्यारोस्तामी कैमरे और क्रू के साथ नज़र आते हैं. जैसे कह रहे हों कि ये जो आपने देखा वो बस एक फ़िल्म की शूटिंग थी. या ये कि दिख रहे सच के ऊपर एक और सच है?

Tuesday, July 03, 2007

ऑफ़साइड (2006) - ईरान

Offside (Iran, Persian)

कमाल का प्रयोग. फ़िल्म ईरान और बहरीन के बीच खेले गए पिछले फ़ुटबॉल विश्व-कप योग्यता मैच के साथ-साथ चलती है. कहानी और पात्रों का व्यवहार मैच की घटनाओं से प्रभावित होता रहता है. और फ़िल्म वहीं मैच के बीच शूट की गई है. डॉक्यूमेंटरी-नुमा फ़िल्मांकन के बीच कई कलाकारों का अभिनय बेजोड़ है. सोचिये अगर तो अन्दाज़ा लगाना मुश्किल है कि फ़िल्म और इसकी कहानी कैसे सोची गई होगी. योजना और इम्प्रोवाइज़ेशन के बीच कितने कमाल का इंटरऐक्शन रहा होगा. इतने इम्प्रोवाइज़ेशन के बाद इतनी दिलचस्प फ़िल्म बना पाना ही जफ़र पनाही की सफलता है.

फ़िल्म जहाँ ऊपरी तौर पर एक कॉमेडी है, इसकी परतों में ईरान के कई सामयिक और सांस्कृतिक मुद्दे उभरते हैं. बड़ी ख़ूबी से ये बात उठती है कि औरतों की आज़ादी जैसे मुद्दों को एक आम ईरानी मज़हब के जरिये ही देखे ये ज़रूरी नहीं. बल्कि अक्सर वह उसे सामाजिक संदर्भों से उपजे कॉमन सेंस के जरिये देखता है.

ब्रीच (2007)

Breach

अमेरिका के सबसे बड़े सुरक्षा भंजन पर बनी यह फ़िल्म दिखाती है कि सच सचमुच कल्पना से ज़्यादा अजीब होता है. 2001 में रूस के लिए जासूसी करते पकड़े गए अमेरिकी एफ़बीआई एजेंट रॉबर्ट हैनसन और एफ़बीआई द्वारा ही उसके पीछे लगाए एक एफ़बीआई प्रशिक्षु एरिक ओ नील की कहानी. चुस्त पटकथा, बढ़िया निर्देशन (बिली रे), और वाशिंगटन के कुछ बढ़िया नज़ारे.

द वेजेज़ ऑफ़ फ़ियर (1953) - फ़्रांस

Salaire de la peur, Le (France, French)
English name: The Wages of Fear

ये फ़िल्म मेरी प्रेक्षण-सूची में प्रमोद सिंह की बदौलत जुड़ी. लातिन अमेरिका के एक गाँव की आलस भरी दोपहरी से शुरू होकर ये फ़िल्म जिस तरह एक तनाव भरे रोमांच में बदलती है, देखने लायक है. अमेरिकन कंपनियों की तेल राजनीति फ़िल्म के केंद्र में है. शुक्रिया प्रमोद.

द आयरन जायंट (1999)

The Iron Giant (Animation)

इन्क्रेडिबल्स और रैटाटूई वाले ब्रैड बर्ड की इस ऐनिमेशन फ़िल्म के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. पर फ़िल्म बच्चों को एक मज़ेदार कहानी तो सुनाती ही है, तकनीकी नज़रिये से भी बढ़िया है. पात्रों को आवाज़ देने वालों में जेनिफ़र ऐनिस्टन और वैन डीज़ल शामिल हैं.