Thursday, June 28, 2007

सिको (2007)

SiCKO

माइकल मूर का ताज़ा शिकार है अमरीकी स्वास्थ्य प्रणाली. इंश्योरेंस व फ़ार्मा कंपनियों ने मिलकर अमेरिका में स्वास्थ्य सेवाओं को कइयों के लिए दुर्लभ बना दिया है. बेरोज़गारों का तो इस देश में भगवान ही मालिक है. जबकि बाक़ी पश्चिमी दुनिया का हर देश (पड़ोसी कनाडा से लेकर अटलांटिक पार के यार इंगलैंड तक) सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराता है, अमेरिका में ऐसा नहीं है. यहाँ ये निजी हाथों में है और सिर्फ़ उन्हीं को उपलब्ध है जो इंश्योरेंस कंपनियों के आसमान छूते प्रीमियम भर सकते हैं. मूर इसके पीछे के "क्यों" की पड़ताल कर रहे हैं. अपने ख़ास तंज भरे अंदाज़ में. उनकी पिछली फ़िल्म फ़ैरनहाइट 911 में प्रोपैगैंडा की बू थी और इसलिए मुझे बहुत पसंद नहीं आई थी. पर इस फ़िल्म से वे वापस बोलिंग फ़ॉर कोलंबाइन की श्रेष्ठता की तरफ़ बढ़ते दिखते हैं. दिलचस्प और झकझोरती डॉक्यूमेंट्री.

Tagline: For many Americans, laughter isn't the best medicine - it's the only medicine.

वीनस (2006)

Venus

बेहतरीन अभिनय और चुटीले संवादों से सजी फ़िल्म. पीटर ओ टूल अविश्वसनीय हैं. जोडी व्हिटेकर भी प्रभाव डालती हैं. फ़िल्म माइ सन द फ़ैनेटिक वाले हनीफ़ क़ुरैशी ने लिखी है. जगह है इंग्लैंड. विषय है एक बुजुर्ग का एक युवा लड़की के प्रति आकर्षण. न न, भूलकर भी निःशब्द के बारे में मत सोचिये. दोनों की दुनियाएँ (भौतिक और कलात्मक दोनों) ही अलग हैं. परतदार.

Sunday, June 17, 2007

हॉट फज़ (2007)

Hot Fuzz

दो शब्द - ब्लडी ब्रिलियंट.

ब्लैक कॉमेडी कोई ब्रितानियों से सीखे. शॉन ऑफ़ द डेड वाले लेखक-निर्देशक एडगर राइट की पेशकश. साइमन पेग, जो फ़िल्म के सह-लेखक भी हैं, सारजेंट एंजल की भूमिका में जबरदस्त हैं. इस साल अब तक देखी फ़िल्मों में बेहतरीन.

नेक्स्ट (2007)

Next

बेवजह सरखपाऊ बकवास. ये निकलस केज को क्या हो गया है.

शूटर (2007)

Shooter

वाशिंगटन पोस्ट के पुलित्ज़र विजेता फ़िल्मालोचक स्टीवन हंटर के उपन्यास पर आधारित. पूर्वसैनिक, कुशल निशानेबाज़ बॉब ली स्वैगर उनके उपन्यासों का नायक है. अभी तक इस नायक के साथ वे तीन उपन्यास लिख चुके हैं और यह फ़िल्म पहले उपन्यास पर आधारित है. यानि यह एक नयी रैम्बो-नुमा शृंखला की शुरुआत हो सकती है. फ़िल्म चुस्त और तेज़ है. मार्क वॉलबर्ग बॉब ली स्वैगर की भूमिका में जँचते हैं. पर कुल मिलाकर कहानी और पटकथा आम हॉलीवुडी महानायकीय फ़िल्मों के फ़ॉर्मूले से बँधे हैं. मज़ेदार पर साधारण.

गोस्ट राइडर (2007)

Ghost Rider

मार्वल कॉमिक्स के एक चरित्र पर आधारित. उबाऊ. निकलस केज, इवा मेंडस (आधा मज़ा तो इन्होंने किरकिरा कर दिया.)

Sunday, June 10, 2007

लेटर्स फ़्रॉम इवो जिमा (2006)

Letters From Iwo Jima (Japanese/English)

देखने लायक. अमरीका-जापान युद्ध में जापान की तरफ़ की एक कहानी. क्लिंट ईस्टवुड को मैं पसंद करता हूँ, पर मुझे लगता है इस फ़िल्म में वे पूरी तरह ईमानदार नहीं रहे. कहने को कहानी जापान के नजरिये से है पर अमेरिकी चश्मे के रंग दिखाई देते हैं.

म्यूज़िक एण्ड लिरिक्स (2007)

Music And Lyrics

हल्की-फुल्की ब्रिटिश स्टाइल की कॉमेडी. कहानी के नाम पर कुछ नहीं. फिर भी ह्यू ग्रांट और ड्रू बैरीमोर साथ हैं - इतवार की दोपहर को और क्या चाहिए. कुछ संवाद अच्छे हैं, कुछ बिल्कुल हल्के.

Drew B: A melody is like seeing someone for the first time. The physical attraction. Sex.
Hugh G: I so get that.
Drew B: But then, as you get to know the person, that's the lyrics. Their story. Who they are underneath. It's the combination of the two that makes it magic.

शूटआउट एट लोखंडवाला (2007)

फ़िल्म की शुरुआत में ही चेतावनी मिल गई थी - "सच्ची अफ़वाहों पर आधारित". न ख़ुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम. गानों को फास्ट-फारवर्ड करने के बावजूद फ़िल्म धीरज का इम्तिहान लेती है. बचिए.

एक चालीस की लास्ट लोकल (2007)

पता नहीं कैसी है. 20 मिनट से आगे नहीं देख झेल पाया...

88 मिनट्स (2007)

88 Minutes

एल पचीनो. "88 मिनट में उसे एक ख़ून की गुत्थी सुलझानी है." अच्छा प्लॉट पर कमजोर रुपांतरण. फ़िल्म तेज़ चलती है पर अंत में संतुष्ट नहीं छोड़ती.

Monday, June 04, 2007

लाइफ़ इन ए मेट्रो (2007)

माना कि 60 के अमेरिका जैसा क्यूबिकल-संसार अब भारत में भी पसर रहा है. पर इसका मतलब यह तो नहीं कि फ़िल्मों के प्लॉट भी वहीं से उधारी लिए जाएँ. और उधारी भी कहाँ, चोरी, बल्कि चोरी भी क्या, डकैती! ऑरिजिनल चिंतन नाम की चीज़ मुम्बई में बची है कि नहीं?

फ़िल्म की प्रस्तावना ('प्रेमिस') ही दुरुस्त नहीं, बाक़ी का क्या कहिये. वही भेजा फ़्राय वाला हिसाब. 1960 की अमेरिकी फ़िल्म द अपार्टमेंट, जो कि एक निहायत मज़ेदार और ईमानदार फ़िल्म थी, का प्लॉट यूँ का यूँ मुम्बई में चिपका दिया है अनुराग बसु ने. भाई मेरे, महज भाषा बदलने से कल्चर अनुवादित नहीं होता.

ऊपर से निर्देशकीय नौसिखियेपन के उदाहरण बिखरे पड़े हैं फ़िल्म में. मिसाल देखिये (चेतावनी - आगे रहस्योदघाटन है). कोंकणा को उसका बॉस जब पहली बार ऑफ़िस (या जिम?) में बुलाता है तो फ़्रेम में उसके पीछे ब्रोकबैक माउण्टेन का पोस्टर लगा दिखता है. अब लीजिए. जो रहस्य फ़िल्म में 15 मिनट बाद इन्हें सनसनीखेज़ तरीके से खोलना है, उसकी वे यहीं बत्ती लगा देते हैं. (चेतावनी समाप्त) अनुराग बाबू, समझदार निर्देशक ऐसे चोंचले नहीं करता, फ़िल्म की क़ीमत पर तो कतई नहीं.

और एक ये प्रीतम एण्ड कंपनी. हर 20 मिनट में किसी चौराहे पर अपने बैंड के साथ गिटार लेकर आ जाते हैं. नहीं, 2-3 बार ठीक लगता है (ख़ासकर 'इन दिनों' सुनने में भला लगता है) पर फिर झुंझलाहट होने लगती है. अच्छे निर्देशक की एक ख़ूबी ये होती है कि उसे पता होता है कि कहाँ रुकना है.

पर एक बात अच्छी लगी अनुराग की. हालाँकि कुछ देर तक वो यथार्थ का नाटक ज़रूर करते हैं, क्लाइमैक्स तक आते-आते जब उनकी पोल-पट्टी खुलने लगती है, बड़ी ईमानदारी से मान जाते हैं कि भई मैं तो मज़ाक़ कर रहा था. कहाँ का सच, कौन सा यथार्थ. छोड़ो यार .. मुझे इरफ़ान को घोड़े पर शहर में भगाने दो.

नहीं नहीं ग़लत मत समझें. फ़िल्म बुरी नहीं है. अच्छा टाइम-पास है. इरफ़ान और कोंकणा फ़िल्म को देखने लायक बनाते हैं. इनकी अदाकारी में इम्प्रोवाइज़ेशन का अच्छा खासा पुट दिखता है. कोंकणा निश्चय ही अपने वक़्त की बेहतरीन अभिनेत्रियों में से हैं. तो अगर आम मसाला फ़िल्मों से कोई ख़ास आपत्ति न हो तो फ़िल्म आराम से देखिये. बुरी नहीं है. पर ऐसा अनुराग बसु की वजह से नहीं है, उनके बावजूद है.

मेरी कई बातों को कहीं बेहतर तरीके से समझाया है सिलेमा वाले साब जी ने. उनसे बस इतना ही कहना है कि फ़िल्म इस लायक नहीं कि इस पर कोई गंभीर बहस हो. इसलिए चाय खत्म कीजिए, आगे चलते हैं.

पर्फ़्यूम - द स्टोरी ऑफ़ अ मर्डरर (2006)

Perfume - The Story of A Murderer (2006)

कहानी 18 वीं सदी के फ़्रांस की है; एक ऐसे अतिमानवीय व्यक्ति की जो कीचड़ में जन्मा है (शब्दशः) पर जिसकी घ्राणशक्ति विलक्षण है. वह दुनिया भर की ख़ुशबुओं को पहचान सकता है और उन्हें अलग-अलग याद रख सकता है. उसके दिमाग में ख़ुशबुएँ ज़्यादा हैं उन्हें देने के लिए नाम कम. और उसकी अपनी कोई गंध नहीं है.

वह चाहता है ऐसा गुर जानना जिससे ज़िंदा चीज़ों की ख़ुशबू को सहेज कर रखा जा सके. और यह चाहत उसे स्याह रास्तों की तरफ़ मोड़ देती है.

एक अच्छी कहानी बढ़िया तरीके से सुनाई हुई. तकनीकी रूप से भी फ़िल्म उम्दा है. 18 वीं सदी का पैरिस अपनी समूची सुगंधों के साथ मौजूद है. पार्श्वसंगीत दृष्यों को गहराई देता है. फ़िल्म एक बेहद लोकप्रिय उपन्यास पर आधारित है. निर्देशक हैं रन लोला रन वाले टॉम टाइक्वर.

फ़िल्म के कमज़ोर पक्षों में आश्चर्यजनक रूप से डस्टिन हॉफ़मैन हैं. और क्लाइमैक्स भी मुझे कुछ हल्का लगा, पर बहुत थोड़ा सा.

IMDB कड़ी