'स्टार-वार्स' एक बहुत बड़े अमरीकी दर्शक-वर्ग के लिए बतौर एक कहानी कुछ-कुछ वैसा ही स्थान रखती है जैसा शायद भारतीयों के लिए रामायण या महाभारत (अरे भाई कहा तो सही, "कहानी के तौर पर")। इसलिए इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं कि इस श्रृंखला की अन्तिम फ़िल्म के प्रदर्शन पर पूरा अमरीका आजकल स्टार-वार्स-मय हो रहा है।
इस श्रृंखला की यह नवीनतम और शायद अन्तिम फ़िल्म एक खास कारण से विशेष है। और वह यह है कि इस फ़िल्म की prequel (पूर्ववर्ती) और sequel (पश्चगामी) दोनों फ़िल्में पहले ही बन चुकी हैं। और वह भी एक-एक नहीं बल्कि इससे पहले के २ भाग और इसके बाद के ३ भाग प्रदर्शित हो चुके हैं। यानी खास बात यह कि फ़िल्म का प्रारम्भ और अन्त तय है। ऐसी दशा में किसी भी फ़िल्म को रुचिकर बनाना खासा मुश्किल काम है। पर जॉर्ज लूकस ने न केवल यह मुश्किल काम कर दिखाया है बल्कि बड़े ही शानदार तरीके से।
पूरी श्रृंखला का एक छोटा-सा परिचय दूँ तो यह फ़िल्म यानी "Episode III - Revenge of The Sith" इसकी छठी फ़िल्म है। जी हाँ, एपिसोड ३, पर छठी। दरअसल पहली और मूल स्टार-वार्स को एपिसोड ४ के नाम से जाना जाता है, जो १९७७ में प्रदर्शित हुई थी। उसके बाद आईं ५ (१९८० में) और ६ (१९८३ में), जिन्हें लूकस ने निर्देशित नहीं किया (हालाँकि लेखन सभी फ़िल्मों में उन्हीं का था)। उसके बाद १६ वर्षों के अन्तराल के बाद १९९९ में प्रदर्शित हुई लूकस-निर्देशित एपिसोड १ और फिर २००२ में पिछली वाली यानी एपिसोड २। कहानी का क्रम भी बेशक नम्बरों के अनुसार ही है। इस नई फ़िल्म की कहानी वहाँ से शुरू होती है जहाँ पिछली प्रदर्शित फ़िल्म एपिसोड २ में खत्म हुई थी, और वहाँ खत्म होती है जहाँ से पहली फ़िल्म (जो २८ साल पहले आई थी) शुरू हुई थी। चक्कर आ रहे हैं? अच्छा छोड़िये। सब भूल जाइये और फ़िल्म देखिये। श्रृंखला की हर फ़िल्म अपने आप में पूरी है (चलो, लगभग पूरी है), किसी ग़ज़ल के शे'र जैसी। मैंने एपिसोड १ को छोड़ कर बाकी सारी फ़िल्में देखी हैं और मेरे विचार में उनमें से यह नवीनतम फ़िल्म, पहली फ़िल्म यानी एपिसोड ४ से अगर बेहतर नहीं तो कम भी नहीं। इसके अलावा एपिसोड ६, जो इस रामकहानी का अन्त दिखाती है, भी इस श्रृंखला की बेहतर फ़िल्मों में से है।
बेशक अगर आपने अगली-पिछली फ़िल्में देख रखी हैं तो आपका जायका थोड़ा अलग होगा, शायद बेहतर भी (क्योंकि आप फ़िल्म की कई सतहों को देख पाएँगे), पर पहली बार के दर्शक के लिए भी फ़िल्म बहुत मजेदार और रुचिकर है। इस फ़िल्म में पहली फ़िल्म के मुकाबले एक अन्तर जो साफ उभरकर सामने आता है वह है हल्के-फुल्के क्षणों की कमी। जहाँ पहली फ़िल्म में (और कुछ अन्य कड़ियों में भी) 3CPO और R2D2 के बीच के हल्के-फुल्के प्रसंग, हान सोलो (हैरिसन फ़ोर्ड अभिनीत) के चुटीले संवाद, राजकुमारी लिया और हान सोलो की नोंक-झोंक फ़िल्म का एक बड़ा हिस्सा थे और फ़िल्म का माहौल मनोरंजक और हल्का बनाये रखते थे, इस फ़िल्म में कोई भी चरित्र वह भूमिका अदा नहीं करता। और 3CPO, जिसका चरित्र ऐसा कर सकता है, उसे बहुत कम फ़ुटेज दी गई है। पर खास बात यह है कि इससे फ़िल्म की मनोरंजकता पर कोई खास बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। कहानी के मामले में पहली फ़िल्म का मुकाबला कोई भी और कड़ी नहीं कर पाती, पर प्रारम्भ और अन्त के निश्चित होने के बाद जो जगह बचती थी उसे देखते हुए यह नई फ़िल्म अच्छी कहानी कहती है। साथ ही पिछली फ़िल्मों के सभी छूटे/बिखरे सिरों को जोड़ने का जिम्मा भी बखूबी निभाती है। सिनेमा-निर्माण में उपलब्ध नई तकनीकों का बहुत अच्छा प्रयोग किया गया है और अचरज में डालने वाले (यह जानते हुए भी कि कम्प्यूटरों के प्रयोग ने अब बहुत कम असम्भव दृश्य छोड़े हैं) दृश्यों की कमी नहीं है। स्टार-वार्स की अन्य फ़िल्मों की तरह कौतूहल पैदा करने वाले चरित्रों की भी भरमार है। अभिनेताओं में कोई भी असाधारण नहीं है पर सबने ठीक-ठाक काम किया है। अगर कोई थोड़ा विशेष प्रभावित करता है तो वह है योडा को अभिनीत करने वाला कलाकार यानी फ़्रैंक ऑज़।
कुल मिलाकर लूकस आराम की साँस ले सकते हैं। विश्व फ़िल्म इतिहास में उनका नाम सुरक्षित है। उन्होंने अमरीका की कई पीढ़ियों को उनके बचपन के कुछ सबसे यादगार चलते-फिरते पात्र दिए हैं। कई माँ-बापों को यह राहत दी है कि वे बच्चों की कोई फ़िल्म उनके साथ बैठकर बिना ऊबे देख सकें। उन्होंने एक विज्ञान-गल्प, जो २८ सालों के एक लम्बे दायरे और छह मनोरंजक फ़िल्मों में फैला हुआ है, को जीवन और उससे भी बढ़कर एक रोचक और उम्दा अन्जाम दिया है। और कौन कर सका है ये!
Tuesday, May 24, 2005
Wednesday, May 11, 2005
स्वदेस - दूसरे दौर की समीक्षा
कल दुबारा 'स्वदेस' देखी। इससे पहले एक लम्बे अर्से में मुझे ऐसी कोई फ़िल्म याद नहीं आती, जो छह महीने के अन्तराल में दो बार साढ़े तीन घंटे तक मुझे बिठा के रख सकी हो। और यह तब है जबकि शाहरुख खान का नाम सुनते ही मुझे छींकें शुरू हो जाती हैं।
फ़िल्म की सबसे खास बात मुझे इसका असलीपन लगा। पात्रों, घटनाओं, मुद्दों से लेकर गलियों, घरों, भाषा और लहजे तक सब बहुत वास्तविक और सच्चे लगते हैं। और फिर भी कहानी का जो अपना 'larger-than-life'वाला व्यक्तित्व होता है वह भी बरकरार रहता है। कुल मिला कर, यह बहुत ही सलीके से सुनाई गई कहानी है जिसमें उम्दा विषय-वस्तु, श्रेष्ठ निर्माण मूल्यों, और सिनेमाई गुणवत्ता के चलते महान होने के पूरे गुण मौजूद हैं। मुझे इस फ़िल्म को आज तक की सभी हिन्दी फ़िल्मों में से कुछ चुनिंदा "न छोड़ने योग्य" फ़िल्मों की सूची में रखने में कोई हिचक नहीं होगी।
आशुतोष गोवारिकर अपनी पीढ़ी के महान निर्देशकों में नाम लिखाने की ओर अग्रसर हैं। 'लगान' शायद ज़्यादा मनोरंजक फ़िल्म थी, पर 'स्वदेस' अधिक विचारोत्तेजक और गहन है। गम्भीर, सामयिक और मुद्दों पर आधारित सिनेमा है। अपने समय की 'दो बीघा ज़मीन' है। पर इनकी ये दोनों फ़िल्में सिनेमाई उत्कृष्टता और अच्छी कही कहानी का श्रेष्ठ उदाहरण हैं। उनकी निर्देशकीय प्रतिभा अब तुक्के की बात नहीं रही। उन्होंने इसे सिद्ध कर दिया है। स्वदेस से ही एक विशेष उदाहरण लें। फ़िल्म में जब मोहन भार्गव (शाहरुख) हरिदास के गाँव से बिना किराया वसूले वापस लौटता है तो पहले नाव पर और फिर ट्रेन में उन दृश्यों में बिना कुछ कहे वे बहुत कुछ कह गए हैं। दृश्य के अन्त में जब मोहन पानी खरीद कर पीता है, वह मेरी हाल की याददाश्त में सबसे प्रभावी दृश्यों में से है। कहते हैं समझदार को इशारा काफ़ी होता है। अधिकतर हिंदी फ़िल्मकार या तो हमें समझदार नहीं समझते या उन्हें इशारा करना नहीं आता। शुक्र है कि इस फ़िल्मे में इस 'इशारे' की वापसी के संकेत दिखते हैं।
गायत्री जोशी बेहद प्रभावित करती हैं। जहाँ उन्हें नए चेहरे का फ़ायदा मिला है वहीं अभिनय में परिपक्वता भी दिखती है। पर उनका रोना-धोना थोड़ा कमज़ोर है। शाहरुख बिना किसी हिचक के इस फ़िल्म को अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करार दे सकते हैं। वैसे सर्वश्रेष्ठ की बजाय एकमात्र श्रेष्ठ कहना भी कुछ गलत नहीं होगा। अभिनय के अलावा एक और चीज जो इस फ़िल्म को सफल बनाती है वह है इसकी पटकथा और उससे भी ज़्यादा इसके संवाद। पात्र बड़े स्वाभाविक लगते हैं। सब वही भाषा बोल रहे हैं जो करोड़ों लोग रोज शहरों, कस्बों और गाँवों में आम बोलचाल में बोलते हैं। संवाद की शक्ति इस फ़िल्म में उभर कर आती है। मेरा मानना है कि किसी कहानी या फ़िल्म के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है किरदारों को विश्वसनीय बनाना। और संवाद, उनकी बोली और लहजा वो जादू की छड़ी है जो अगर ठीक से चलाई जाए तो हाथों-हाथ देखने वाले को पात्रों से जोड़ देती है। के पी सक्सेना ने लगान में भी यह कर दिखाया था और यहाँ भी वे पूरे सफल रहे हैं।
फ़िल्म के गाने मुझे फ़िल्म में बेहतर लगे। शुक्र है कि आशुतोष उन दिग्दर्शकों में से हैं जिन्हें गाने की ताकत का अन्दाज़ा है और उससे भी महत्वपूर्ण यह कि वे गाने के माध्यम से अपनी कहानी को आगे बढ़ाना जानते हैं। पिछले काफ़ी अर्से से रहमान की धुनें मुझे कुछ खास रुचिकर नहीं लगीं, पर पार्श्वसंगीत के मामले में मैं उन्हें अभी भी सबसे बेहतर उपलब्ध संगीतकारों में शुमार करता हूँ। इस फ़िल्म का पार्श्वसंगीत भी अपनी पारदर्शिता और भराव की वजह से अच्छा असर छोड़ता है।
पर यह भी सच नहीं कि स्वदेस एक सम्पूर्ण फ़िल्म है। कुल मिलाकर करीब ८-१० मिनट की फ़िल्म ऐसी है जो बाकी फ़िल्म के स्तर से मेल नहीं खाती। मसलन, नासा में फ़िल्माए अधिकतर दृश्य सपाट हैं। निर्देशक अमरीकी अभिनेताओं को अच्छी तरह 'हैंडल' नहीं कर पाए हैं। इसी तरह वृद्धाश्रम का दृश्य बड़ा ही कमज़ोर है, शायद नौसिखिया कलाकारों की वजह से। हालाँकि बाकी फ़िल्म में आशुतोष ने सहायक कलाकारों से कमाल का काम लिया है। एक और दृश्य जो मेरे खयाल में थोड़ा 'कच्चा' रह गया, वह है दशहरे वाले दिन मोहन भार्गव का गाँव के लोगों से "भारत की महानता" के बारे में मतभेद। मुझे लगता है कि यह फ़िल्म के सबसे महत्वपूर्ण दृश्यों में से था और इसे और अधिक प्रभावी बनाया जा सकता था। पर ऐसे सीन गिने-चुने हैं। तीन घंटे से अधिक के आनन्द में ये कुछ पल खास बाधा नहीं डालते।
मैं जानता हूँ कि लम्बाई की वजह से फ़िल्म की आलोचना हुई है। यहाँ तक कि उनके द्वारा भी जिन्हें फ़िल्म वैसे पसंद आई है। मुझे नहीं लगता कि यह आलोचना जायज़ है। फ़िल्म लंबी ज़रूर चलती है, पर थकती नहीं। उद्देश्य यह नहीं होता कि फ़िल्म लंबी न हो, बल्कि यह होता है कि उबाऊ न हो। स्वदेस बिल्कुल अन्त तक ताजा और रुचिकर रहती है। एकाध क्षण ऐसे आते हैं जब थोड़ी बेचैनी होती है या घड़ी की तरफ़ ध्यान जाता है (जैसे अन्त के आसपास नासा वाला सीन थोड़ा-सा लम्बा खिंच गया है), पर बड़ी जल्दी ही फ़िल्म पटरी पर वापस आ जाती है।
मेरे विचार में गम्भीर फ़िल्मों का निर्माण-मूल्यों से लैस होना हिन्दी फ़िल्मों के लिए एक दुर्लभ संयोग है। और जब ऐसा हो तो यह ख़ुशी का कारण है, और उम्मीद का भी। स्वदेस मेरे खयाल से ऐसी ही घटना है।
अन्त में आशुतोष से एक अनुरोध : भाई मेरे, जो कर रहे हो, जैसे कर रहे हो, वैसे ही करते रहो। कारण कि बिल्कुल सही-सही कर रहे हो। एक बात और। ये 'स्वदेश' नाम में क्या बुराई थी लाला? तत्सम-तद्भव ऐसे 'मिक्स' करने की क्या ज़रूरत आ पड़ी। अगर इतनी ही ठेठ होने की पड़ी थी तो 'अपना देस' कह लेते। 'स्व' संस्कृत का उपसर्ग है, इसे हर हिंदी शब्द के साथ नहीं जोड़ा जाता। यह किसी तत्सम के साथ ही जाता है। कभी 'स्व-गाँव' सुना है? क्या है कि आँख-कान को थोड़ा खटकता है। बाकी तुम्हारी फ़िल्म है, जो मर्जी नाम रखो। नाम का यही तो फ़ायदा है कि उसका कोई अर्थ निकलना ज़रूरी नहीं, न ही सही होना। इसी 'टेक्नीकॅलिटि' के चलते बच गए इस बार। पर इसका और फ़ायदा मत उठाना, भाई।
फ़िल्म की सबसे खास बात मुझे इसका असलीपन लगा। पात्रों, घटनाओं, मुद्दों से लेकर गलियों, घरों, भाषा और लहजे तक सब बहुत वास्तविक और सच्चे लगते हैं। और फिर भी कहानी का जो अपना 'larger-than-life'
आशुतोष गोवारिकर अपनी पीढ़ी के महान निर्देशकों में नाम लिखाने की ओर अग्रसर हैं। 'लगान' शायद ज़्यादा मनोरंजक फ़िल्म थी, पर 'स्वदेस' अधिक विचारोत्तेजक और गहन है। गम्भीर, सामयिक और मुद्दों पर आधारित सिनेमा है। अपने समय की 'दो बीघा ज़मीन' है। पर इनकी ये दोनों फ़िल्में सिनेमाई उत्कृष्टता और अच्छी कही कहानी का श्रेष्ठ उदाहरण हैं। उनकी निर्देशकीय प्रतिभा अब तुक्के की बात नहीं रही। उन्होंने इसे सिद्ध कर दिया है। स्वदेस से ही एक विशेष उदाहरण लें। फ़िल्म में जब मोहन भार्गव (शाहरुख) हरिदास के गाँव से बिना किराया वसूले वापस लौटता है तो पहले नाव पर और फिर ट्रेन में उन दृश्यों में बिना कुछ कहे वे बहुत कुछ कह गए हैं। दृश्य के अन्त में जब मोहन पानी खरीद कर पीता है, वह मेरी हाल की याददाश्त में सबसे प्रभावी दृश्यों में से है। कहते हैं समझदार को इशारा काफ़ी होता है। अधिकतर हिंदी फ़िल्मकार या तो हमें समझदार नहीं समझते या उन्हें इशारा करना नहीं आता। शुक्र है कि इस फ़िल्मे में इस 'इशारे' की वापसी के संकेत दिखते हैं।
गायत्री जोशी बेहद प्रभावित करती हैं। जहाँ उन्हें नए चेहरे का फ़ायदा मिला है वहीं अभिनय में परिपक्वता भी दिखती है। पर उनका रोना-धोना थोड़ा कमज़ोर है। शाहरुख बिना किसी हिचक के इस फ़िल्म को अपनी सर्वश्रेष्ठ भूमिका और सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करार दे सकते हैं। वैसे सर्वश्रेष्ठ की बजाय एकमात्र श्रेष्ठ कहना भी कुछ गलत नहीं होगा। अभिनय के अलावा एक और चीज जो इस फ़िल्म को सफल बनाती है वह है इसकी पटकथा और उससे भी ज़्यादा इसके संवाद। पात्र बड़े स्वाभाविक लगते हैं। सब वही भाषा बोल रहे हैं जो करोड़ों लोग रोज शहरों, कस्बों और गाँवों में आम बोलचाल में बोलते हैं। संवाद की शक्ति इस फ़िल्म में उभर कर आती है। मेरा मानना है कि किसी कहानी या फ़िल्म के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है किरदारों को विश्वसनीय बनाना। और संवाद, उनकी बोली और लहजा वो जादू की छड़ी है जो अगर ठीक से चलाई जाए तो हाथों-हाथ देखने वाले को पात्रों से जोड़ देती है। के पी सक्सेना ने लगान में भी यह कर दिखाया था और यहाँ भी वे पूरे सफल रहे हैं।
फ़िल्म के गाने मुझे फ़िल्म में बेहतर लगे। शुक्र है कि आशुतोष उन दिग्दर्शकों में से हैं जिन्हें गाने की ताकत का अन्दाज़ा है और उससे भी महत्वपूर्ण यह कि वे गाने के माध्यम से अपनी कहानी को आगे बढ़ाना जानते हैं। पिछले काफ़ी अर्से से रहमान की धुनें मुझे कुछ खास रुचिकर नहीं लगीं, पर पार्श्वसंगीत के मामले में मैं उन्हें अभी भी सबसे बेहतर उपलब्ध संगीतकारों में शुमार करता हूँ। इस फ़िल्म का पार्श्वसंगीत भी अपनी पारदर्शिता और भराव की वजह से अच्छा असर छोड़ता है।
पर यह भी सच नहीं कि स्वदेस एक सम्पूर्ण फ़िल्म है। कुल मिलाकर करीब ८-१० मिनट की फ़िल्म ऐसी है जो बाकी फ़िल्म के स्तर से मेल नहीं खाती। मसलन, नासा में फ़िल्माए अधिकतर दृश्य सपाट हैं। निर्देशक अमरीकी अभिनेताओं को अच्छी तरह 'हैंडल' नहीं कर पाए हैं। इसी तरह वृद्धाश्रम का दृश्य बड़ा ही कमज़ोर है, शायद नौसिखिया कलाकारों की वजह से। हालाँकि बाकी फ़िल्म में आशुतोष ने सहायक कलाकारों से कमाल का काम लिया है। एक और दृश्य जो मेरे खयाल में थोड़ा 'कच्चा' रह गया, वह है दशहरे वाले दिन मोहन भार्गव का गाँव के लोगों से "भारत की महानता" के बारे में मतभेद। मुझे लगता है कि यह फ़िल्म के सबसे महत्वपूर्ण दृश्यों में से था और इसे और अधिक प्रभावी बनाया जा सकता था। पर ऐसे सीन गिने-चुने हैं। तीन घंटे से अधिक के आनन्द में ये कुछ पल खास बाधा नहीं डालते।
मैं जानता हूँ कि लम्बाई की वजह से फ़िल्म की आलोचना हुई है। यहाँ तक कि उनके द्वारा भी जिन्हें फ़िल्म वैसे पसंद आई है। मुझे नहीं लगता कि यह आलोचना जायज़ है। फ़िल्म लंबी ज़रूर चलती है, पर थकती नहीं। उद्देश्य यह नहीं होता कि फ़िल्म लंबी न हो, बल्कि यह होता है कि उबाऊ न हो। स्वदेस बिल्कुल अन्त तक ताजा और रुचिकर रहती है। एकाध क्षण ऐसे आते हैं जब थोड़ी बेचैनी होती है या घड़ी की तरफ़ ध्यान जाता है (जैसे अन्त के आसपास नासा वाला सीन थोड़ा-सा लम्बा खिंच गया है), पर बड़ी जल्दी ही फ़िल्म पटरी पर वापस आ जाती है।
मेरे विचार में गम्भीर फ़िल्मों का निर्माण-मूल्यों से लैस होना हिन्दी फ़िल्मों के लिए एक दुर्लभ संयोग है। और जब ऐसा हो तो यह ख़ुशी का कारण है, और उम्मीद का भी। स्वदेस मेरे खयाल से ऐसी ही घटना है।
अन्त में आशुतोष से एक अनुरोध : भाई मेरे, जो कर रहे हो, जैसे कर रहे हो, वैसे ही करते रहो। कारण कि बिल्कुल सही-सही कर रहे हो। एक बात और। ये 'स्वदेश' नाम में क्या बुराई थी लाला? तत्सम-तद्भव ऐसे 'मिक्स' करने की क्या ज़रूरत आ पड़ी। अगर इतनी ही ठेठ होने की पड़ी थी तो 'अपना देस' कह लेते। 'स्व' संस्कृत का उपसर्ग है, इसे हर हिंदी शब्द के साथ नहीं जोड़ा जाता। यह किसी तत्सम के साथ ही जाता है। कभी 'स्व-गाँव' सुना है? क्या है कि आँख-कान को थोड़ा खटकता है। बाकी तुम्हारी फ़िल्म है, जो मर्जी नाम रखो। नाम का यही तो फ़ायदा है कि उसका कोई अर्थ निकलना ज़रूरी नहीं, न ही सही होना। इसी 'टेक्नीकॅलिटि' के चलते बच गए इस बार। पर इसका और फ़ायदा मत उठाना, भाई।
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