Sunday, April 24, 2005
अ से अमिताभ उर्फ़ फ़िल्मफ़ेस्ट डीसी २००५
रविवार, अप्रैल १७, २००५. ऐवलॉन थियेटर, वाशिंगटन डीसी
यह १९ वाँ डीसी फ़िल्म फ़ेस्टिवल है। हिन्दी फ़िल्में यहाँ पहले एकाध बार दिखाई तो गई हैं, पर इस बार की तरह नहीं। इस बार तो फ़ेस्टिवल की थीम ही 'बीजिंग से बॉलीवुड तक' है। हालाँकि फ़िल्मों के चयन से मुझे थोड़ी असंतुष्टि है पर कुछ हो रहा है यही काफ़ी है। यह जिम्मा प्रतिष्ठित स्मिथसोनियन इंस्टीच्यूट की मंजुला कुमार के हाथों में था। दरअसल भारतीय पैनोरमा का सारा काम-काज उन्होंने ही सँभाल रखा है। फ़िल्मों के चयन से लेकर विशेष मेहमानों की आवभगत और थियेटर में फ़िल्म व मेहमान के परिचय तक। समारोह की भारतीय फ़िल्में ये हैं: मुग़ल-ए-आज़म, रेनकोट, चोखेर बाली (बांग्ला), दिल से, देव, ब्लैक, हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी, बवंडर, संचारम (मलयालम), मॉर्निंग रागा, और सॉंग्स ऑफ़ महुलबनी (बांग्ला)। विशेष मेहमानों में शामिल हैं अमिताभ, अभिषेक, रितुपर्णो घोष, सुधीर मिश्रा, जगमोहन मूँधड़ा, नंदिता दास, आदि।
सारी फ़िल्में देखना तो संभव नहीं था, इसलिये हमने तय किया कि समय-रुचि-सामर्थ्य के अनुसार चुनाव किया जाए। और कम से कम 'देव' या 'ब्लैक' तो देखी ही जाए। अमिताभ इन फ़िल्मों के शो के दौरान उपस्थित रहने वाले थे और उनको देखने का मौका चूकने का कोई विशेष कारण नहीं बनता था। ऊपर से अभिषेक भी आने वाले थे। हमने 'देव' चुनी क्योंकि 'ब्लैक' हमने अभी पिछले दिनों ही देखी थी। इतवार को दोपहर का शो था। उसी दिन शाम को 'ब्लैक' भी दिखाई जानी थी। और दोनों ही फ़िल्मों में बच्चन पिता-पुत्र मौजूद रहने वाले थे।
१९२३ में बना ऐतिहासिक ऐवलॉन थियेटर डीसी का सबसे पुराना लगातार चालू रहने वाला सिनेमाघर था, जब २००१ में इसे बंद कर दिया गया। आस-पास के लोगों की अथक कोशिशों के बाद २००३ में यह फिर शुरू हुआ। कनेटिकट ऐवेन्यू पर चेवी चेज़ सर्किल के पास स्थित यह सिनेमाघर काफ़ी कुछ किसी छोटे भारतीय शहर के आम सिनेमाघर जैसा लगता है। 'देव' और 'ब्लैक' समेत फ़ेस्टिवल की कई महत्वपूर्ण फ़िल्में यहीं दिखाई जा रही हैं।
इतवार की दोपहरें अलसायी-सी होती हैं। पर बसन्त की ठंढी धूप इस दोपहर को ताज़ा रखने की पूरी कोशिश कर रही थी। कुछ घंटे-भर पहले पहुँच गए थे हम। टिकटें हमने पहले ही आरक्षित करवा दी थीं। कुछ खास भीड़-भाड़ तो नहीं थी, पर टिकट खिड़की बंद थी और चंद लोग टिकटों के "जुगाड़" में लगे थे। एक से पूछा तो बोले कि इस उम्मीद में हैं कि ब्लैक में मिल जाएँगी। बाद में पता चला कि वे महाशय बिना टिकट ही अंदर घुस लिए थे, यह कहकर कि एयर इंडिया से आए हैं।
खैर, हम अंदर पहुँचे। हॉल काफ़ी भर चुका था। मिनटों बाद ही पीछे की सीटों से कुछ शोर सुनाई दिया और सारी गर्दनें पीछे मुड़ने लगीं। अमिताभ और अभिषेक दरवाज़े के पास खड़े थे और उन्हें पिछली सीटों पर बिठाया जा रहा था। और जैसा कि अमिताभ की फ़िल्मों में उनकी "एंट्री" के वक़्त होता है, हॉल तालियों से गूँज रहा था। लगभग ये सारे दर्शक जीवन में पहली बार अमिताभ की कोई फ़िल्म पूरी की पूरी अमिताभ के साथ बैठकर देखने वाले थे। और तालियों से बखूबी यह पता चल रहा था। फिर फ़िल्मफ़ेस्ट के निदेशक टोनी गिटन्स और मंजुला जी मंच पर आए। निदेशक महोदय ने फ़ेस्टिवल का और मंजुला जी ने फ़िल्म और अमिताभ का परिचय दिया। थोड़ी-सी नर्वस लगीं। पर उनका क्या दोष। फिर अमिताभ मंच पर आये, कुछ फ़िल्म के बारे में बोले। कहा कि फ़िल्म पुलिस और राजनीति के बीच के गठजोड़ को दिखाती है और बहुत 'बोल्ड' है; बहुत ईमानदारी और हिम्मत से बनाई गई है; बाकी आप फ़िल्म में देखें। उसके बाद फ़िल्म शुरू हुई। अब तक हॉल खचाखच भर चुका था और चंद लोग गैलरी में खड़े-बैठे फ़िल्म देख रहे थे। अमिताभ, अभिषेक और अमर सिंह (जी हाँ, वही) पिछली पंक्ति में कोने की सीटों पर बैठे थे - कोने पर अभिषेक, फिर अमर सिंह, फिर अमिताभ। एक अमरीकी स्वयंसेविका उनकी दर्शकों से "रक्षा" के लिए अभिषेक के पहले खड़ी थीं। फ़िल्म हम पहले ही देख चुके थे और हमारी राय फ़िल्म के बारे में कुछ खास अच्छी नहीं थी। पर ऐसा भी नहीं था कि दोबारा झेल न सकें। सो बैठे रहे। मैं कुछ सोते, कुछ जागते देखता रहा। उम्मीद यह थी कि फ़िल्म के बाद शायद कोई मौका मिले, औटोग्राफ़ या फोटोग्राफ़ लेने का। जैसे-तैसे फ़िल्म ख़त्म हुई। बीच में तो कहीं तालियाँ नहीं बजीं पर फ़िल्म के खत्म होने पर जम कर बजीं। हालाँकि मुझे नहीं लगता कि लोगों को फ़िल्म कुछ खास पसंद आई होगी, पर जब अभिनेता वहीं मौजूद हो तो ताली बजाने में कसर करना अच्छी मेहमाननवाज़ी नहीं होती। कुछ इसी विचार से हमने भी लोगों का पूरा साथ दिया।
इस बीच मंजुला जी मंच की तरफ़ बढ़ने लगीं और भारतीय प्रशंसक (जो अब अच्छी खासी तादाद में दिख रहे थे) अमिताभ की तरफ़। यह सोचकर कि कहीं देर न हो जाए, मैं भी लपका। इतने में मंजुला जी ने घोषणा की कि अब अमिताभ श्रोताओं के सवालों का जवाब देंगे। लोग फिर बैठ गए। पर मैं चलता गया। सेकेंडो में मैं अमिताभ के पास था। बिल्कुल पास। कैमरा लिए। और कोई पास नहीं है। सिर्फ़ अमिताभ और उनको लेकर मंच की तरफ़ बढते हुए निदेशक महोदय। मैं हाथ मिलाता हूँ। फिर औटोग्राफ़ माँग रहा हूँ। निदेशक कहते हैं कि वे मंच पर जाकर वापस आएँगे। अमिताभ भी दोहराते हैं "I am coming back"। मैं कुछ तस्वीरें खींचता हूँ। और अमिताभ मंच की ओर बढ़ते रहते हैं। अब सोचने पर सब कुछ "सर्रियल"-सा लगता है। अवसर की अहमियत को दिमाग ने तब तक शायद प्रॉसेस नहीं किया था। अमिताभ मंच पर पहुँचते हैं और फिर सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हो जाता है। कुछ अच्छे और कई आम सवाल पूछे जाते हैं जिनका अमिताभ बड़े ही सलीके से और कभी-कभी मजाकिया उत्तर देते हैं। कई अमरीकी अगर फ़िल्म देखकर नहीं, तो इस संवाद से ज़रूर उनके प्रशंसक बन गए होंगे। प्रश्न पूछने वालों में अमरीकी ही ज़्यादा हैं। एक सवाल हमारे "डीसी बॉलीवुड मीटप ग्रुप" की सदस्या जेना भी पूछती हैं, हिन्दी फ़िल्मों में नाच-गानों की आवश्यकता के बारे में। पर अमिताभ एक घिसा-पिटा-सा उत्तर देते हैं। मैं मध्य गैलरी में मंच के पास जाकर कुछ और तस्वीरें लेता हूँ। मेरे पास अमिताभ से कुछ खास पूछने को नहीं है। कम से कम उस वक्त तो कुछ याद नहीं आता। हिन्दी फ़िल्मों में हिन्दी शीर्षकों (क्रेडिट्स) की अनुपस्थिति से मैं व्यथित हूँ पर विदेशी मंच पर यह प्रश्न मुझे असंगत लगता है और मैं विचार टाल देता हूँ। दूसरे यह भी कि मैं इस प्रश्न को जितने महत्व और गम्भीरता के साथ रखना चाहता हूँ, मुझे लगता है यहाँ शायद वह न मिले। इस बीच मैं कोशिश करता हूँ कि अभिषेक (जो अभी भी पिछली पंक्ति में अपनी सीट पर बैठे हैं) का औटोग्राफ़ ले लूँ। लेकिन कोने पर खड़ी वह स्वयंसेविका जो कि अब कुछ परेशान-सी लग रही है यह कह कर मना करती है कि इसकी इजाज़त नहीं है। मैं वहीं पास खड़ा उसके इधर-उधर होने का इंतज़ार करता हूँ, पर वह मौका कभी आता नहीं। मैं कुछ तस्वीरें तो खींच ही लेता हूँ। सवाल-जवाब के बाद मंजुला जी अभिषेक को मंच पर बुलाती हैं। जब वे मंच की ओर बढ़ते हैं, मुझे औटोग्राफ़ लेने का मौका मिलता है। मैं यशवंत व्यास की लिखी "अमिताभ का अ" उनके सामने बढ़ाता हूँ। वे मुस्कुराते हैं। पेन माँगते हैं। मैं पूछता हूँ कि क्या आपने पढ़ी है। वे मुस्कुरा कर हाँ कहते हैं और उसपर अपने दस्तख़त करते हैं। इस बीच उनके चारों ओर भीड़ बढ़ने लगती है। अब मैं उनको छोड़ अपने मुख्य "निशाने" की तरफ़ बढ़ता हूँ, जो पहले ही घिरा हुआ है। अभिषेक को मंच पर बुलाने का प्लान निदेशक महोदय को अब एक भूल लगता है और वे यह कहते सुनाई देते हैं, "I have never seen anything like this in my life." उन्हें शुक्र करना चाहिए कि यह फ़ेस्टिवल भारत में नहीं हो रहा है। पत्नी का कहना है कि यहाँ के प्रशंसक बड़े ही सभ्य तरीके से व्यवहार कर रहे हैं। मैं उससे सहमति व्यक्त करता हूँ। और फिर लोगों से घिरे अमिताभ तक पहुँचता हूँ और उन्हें वही किताब थमाता हूँ। एक पल को वे किताब के शीर्षक को देखते हैं और एक पल को मुझे। मेरे दिमाग में "भाई तुम साइन करोगे या नहीं" कौंधता है। शुक्र है मुँह से नहीं निकलता। अमिताभ मुस्कुराते हैं और साइन कर देते हैं। उनका एक और प्रशंसक धन्य हो जाता है। किसी विजेता की तरह पीछे मुड़ता हूँ तो पत्नी बड़ी उत्सुकता से पूछती है, "मिल गया?" चेहरे पर ढाई इंच की मुस्कुराहट लिए हाँ कहता हूँ। अब अपना सामान उठाकर हम हॉल से निकलने के लिए पीछे की तरफ़ चलते हैं। वहाँ पिछली सीट पर अमर सिंह और उनकी पत्नी भीड़ से दूर अकेले शांतिपूर्वक बैठे अमिताभ के अमरीकी प्रशंसकों को देख रहे हैं। मैं उन्हें वही किताब दिखाता हूँ और पूछता हूँ कि क्या उन्होंने पढ़ी है। वे उलट-पुलट कर देखते हैं और कहते हैँ कि ये तो नहीं देखी कभी। मैं सलाह देता हूँ कि पढ़ें, अच्छी किताब है। वे किताब पर शुभकामनाएँ लिखते हैं। मैं दो-एक सवाल पूछ्ता हूँ अमिताभ के आगे के कार्यक्रम के बारे में। वे बताते हैं कि अमिताभ कल ही भारत रवाना हो रहे हैं। धन्यवाद कहकर मैं विदा लेता हूँ। मेरे पीछे खड़ीं एक अमरीकी युवती मुझसे पूछती हैं कि ये कौन हैं। मैं उन्हें बताता हूँ कि ये अमर सिंह... इससे पहले कि मैं अपना वाक्य पूरा करूँ वे चहक उठती हैं "Oh! so *he* is Amar Singh."। मैं ढाई इंच की मुस्कान को दो इंच का करके बाहर निकलता हूँ। एक अविस्मरणीय शाम पूरी होने को है। मेरा दिमाग अब प्रोसेसिंग शुरू कर चुका है। अब मैं इस आनंद रस को बूँद-बूँद पी रहा हूँ।
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